रविवार, 19 मई 2013

शिक्षा में आपातकाल





दिल्ली विश्वविद्यालय का 4 वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम उसके प्रबन्धकों द्वारा  सराहा जा रहा है  जबकि देश के जाने माने शिक्षाशास्त्री इसकी उतनी प्रशंसा नहीं कर रहे हैं ... इस बारे में आज  जनसत्ता में प्रकाशित अपूर्वानंद का यह लेख इस बहस को  आगे बढ़ता है .... हम यहाँ पोटली पर इसे जनसत्ता की वेब साइट से लेकर प्रकाशित कर रहे हैं ... इसके लिए हम उसके आभारी हैं ... 









 अकादमिक मामलों में कभी आपातकाल नहीं हो सकता।इस वाक्य को हर विश्वविद्यालय और शिक्षा से जुड़ी संस्था के प्रशासनिक कक्ष में टांक देना चाहिए। पिछले कुछ समय से दिल्ली विश्वविद्यालय में आनन-फानन में लाए गए चार-वर्षीय पाठ्यक्रम पर चल रही बहस के संदर्भ में विधिवेत्ता उपेंद्र बक्शी का यह वाक्य फिर से प्रासंगिक लगने लगा है। बक्शी का मानना है कि शिक्षा से जुड़ा कोई भी फैसला पर्याप्त विचार-विमर्श के बिना नहीं किया जा सकता। पर्याप्त कब पर्याप्त माना जाएगा?’ आपातकाल के समर्थक पूछते हैं। वे कहते हैं, पहले ही बहुत देर हो चुकी है। हम एक टाइम बम पर बैठे हैं। अगर फौरन कुछ न किया गया तो अंत निश्चित है। 
हमारी शिक्षा नौजवानों को कोई हुनर नहीं देती। बाजार समझ नहीं पाता कि भारतीय शिक्षा संस्थानों से निकले स्नातकों को क्या काम दें!शिक्षित नौजवानों से यह निराशा उद्योग जगत की है जिससे राजनेता, नौकरशाह और नीति-निर्माता सहमत नजर आते हैं। अपराधबोध से ग्रस्त शिक्षा जगत भी इसे मान लेता है। बिना पूछे, जो शिक्षा जगत का बुनियादी काम है, कि इसका ठीक-ठीक अर्थ क्या है? और क्या यह समस्या मात्र भारत की है या उन देशों की भी है, जिनकी शिक्षा-व्यवस्था को हम प्राय: आदर्श मानते हैं? बाजार के लायक नौजवान तैयार करना हमारा काम नहीं है, इस प्रकार का उत्तर स्वीकार्य नहीं है। इसमें एक प्रकार के आभिजात्यवादी अहंकार की बू आती है। 
शिक्षा और बाजार के रिश्ते को कैसे समझा जाए? मसलन, बाजार यानी शिक्षा संस्थानों से क्या उम्मीद करता रहा है, जिसे वे पूरा नहीं कर पाए हैं? क्या हमारे पास इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए किया गया कोई शोध या अध्ययन है? समस्या की निशानदेही हम कैसे कर पा रहे हैं? या इसके भी पहले प्रश्न यह किया जाना उचित होगा कि क्या हमें  ठीक-ठीक पता है कि समस्या ही क्या है? बिना ठीक निदान के चिकित्सा कैसे की जा सकती है? 
चारसाला स्नातक स्तरीय पाठ्यक्रम के पक्ष में जो सबसे बड़ा और अपील करने वाला तर्क दिया जा रहा है, वह यह कि हमारे स्नातक बाजार के लायक नहीं हैं। लेकिन यह हमें मालूम ही कैसे हुआ? आशय यह कि हमारे स्नातक अपने संस्थानों से निकल कर कहां जाते और क्या करते हैं, यह जानने की कोशिश कभी किसी संस्थान ने की नहीं है। इसलिए हमारे पास उनकी बाजार में खपत, बाजार की उनसे संतुष्टि के तालमेल के बारे में कहने को कुछ भी ठोस नहीं है। क्या दिल्ली विश्वविद्यालय या किसी भी और विश्वविद्यालय को अपने स्नातकों में दिलचस्पी रही है? अगर उनके बारे में जानकारी की यह कमी है तो इस संबंध में कुछ किए जाने की जरूरत है, न कि बिना किसी आधार के ऐसे वक्तव्य देने की कि हमारे स्नातक किसी काम के नहीं हैं।  
फिक्कीऔर एसोचैमजैसी संस्थाओं ने बीच-बीच में विश्वविद्यालयी शिक्षा और बाजार की अपेक्षाओं के बारे में जो अध्ययन कराए हैं, वे भी बाजार के कुछ हिस्सों के बारे में ही हैं। उनकी शिकायत प्राय: यह रही है कि इन क्षेत्रों में आने वालों के पास अभिव्यक्ति और अंतरवैयक्तिक संबंध को निभाने जैसे कौशल नहीं हैं। इन्हें वे सॉफ्ट स्किल्सकी कमी कहते हैं। इन अध्ययनों में भी प्रत्याशियों के अपने विषय के ज्ञान को लेकर कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं मिलती।  
हमारे पास शोध और अध्ययन की जगह किस्से ज्यादा हैं। और हम जानते हैं कि कमजोर के मुकाबले ताकतवर के किस्से में ज्यादा दम होता है। लेकिन एक और स्थिति हो सकती है। मसलन, एक ही तरह के किस्से आम हों तो भी उनसे कुछ नतीजे निकाले जा सकते हैं। मसलन, हमें पता है कि लगभग हर राज्य में कॉन्स्टेबल जैसे पद के लिए एमए, पीएचडी की योग्यताओं के साथ लोग आवेदन कर रहे हैं। इससे क्या नतीजा निकलता है? क्या यह कि इन उपाधियों का स्तर इतना गिर गया है या यह कि इन उपाधियों के लायक बाजार में काम नहीं है? यह सवाल इसलिए जरूरी है कि अगर हमारे पास दो अलग-अलग जवाब हैं, तो शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन दो भिन्न प्रकार से करने होंगे।
स्नातकों की कार्यक्षमता को लेकर हमारे पास कोई अध्ययन नहीं है। आमतौर पर माना जाता है कि हमारी डिग्रियों में बाजार को अपील करने की ताकत बहुत कम है। इसे हम उनकी सिग्नलिंग वैल्यूकहते हैं। लेकिन इससे हमारी डिग्रियों की औसत गुणवत्ता के बारे में किसी राय का पता नहीं चलता। डिग्री की औसत गुणवत्ता और 

उसकी सिग्नलिंग वैल्यूबिल्कुल भिन्न हैं। क्या इस बात को ध्यान में रख कर कोई  अध्ययन कराया गया है? अगर नहीं तो हम इस सिलसिले में भी कोई नीति कैसे बना सकते हैं? 
नीतियां किस्सों-कहानियों और हमारे विश्वासों के आधार पर नहीं बनतीं। इसीलिए योजना आयोग विभिन्न नीति संबंधी क्षेत्रों के लिए अध्ययन कराता है। वहां भी शिक्षा के मामले में शोध न के बराबर है। इसलिए समितियों में बैठे लोगों के अपने अनुभवों और अंधविश्वासों के आधार पर नीतियां बनाई जाती हैं। 
दिल्ली विश्वविद्यालय की अभी की डिग्रियां किसी काम की नहीं रह गर्इं, ऐसा कहने के पहले हमारे पास एकाधिक शोध और अध्ययन होने चाहिए। अगर वर्तमान प्रशासन ने ऐसा कुछ किया होता तो यह उच्च शिक्षा के नियोजन की दिशा में उसका बड़ा योगदान होता। दुर्भाग्य से ऐसा न करके किस्से-कहानी के आधार पर नतीजे निकालने की गैर-अकादमिक आदत को सम्मानित किया गया है। कहा गया कि एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने आकर तकरीबन ग्यारह सौ छात्रों की योग्यताओं की   जांच की और उनमें से सिर्फ तीन को काबिल पाया। 
यह वक्तव्य अगर सर्वोच्च पद से दिया जा रहा हो तो एक नाटकीय गंभीरता हासिल कर लेता है। उस पद के रुआब के मारे यह कोई नहीं पूछता कि क्या इस कंपनी के पास इस प्रकार की जांच की क्षमता है। दूसरे, क्या यह कंपनी गुपचुप बुलाई गई? क्या विश्वविद्यालय में हर छात्र को उनके काम की सूचना दी गई? तीसरे, जिन ग्यारह सौ छात्रों के आंकड़े कंपनी को दिए गए, उन्होंने स्वेच्छा से इस जांच के लिए खुद को प्रस्तुत किया था? अगर नहीं, तो यह सब करना कितना नैतिक था? इन सवालों से बिल्कुल अलग, वह कंपनी इन ग्यारह सौ छात्रों में किस प्रकार के कौशलों की तलाश कर रही थी, जिनके न मिलने से वह निराश हो गई? बिना इन ब्योरों के यह कहना कि ग्यारह सौ में सिर्फ तीन लायक थे, किसी भी अकादमिक समूह में स्वीकार्य नहीं होगा। दिलचस्प गप्प के लिए एक मसाला हो तो हो। 
अगर हम बिना किसी शोध और अध्ययन के मान भी लें कि हमारे शिक्षा संस्थान नालायक स्नातक पैदा कर रहे हैं, तो भी इलाज तीन साल के पाठ्यक्रम की अवधि को बढ़ा कर चार साल करना शायद न होगा। इसमें क्या कुछ जोड़े जाने से अभी की हमारी स्नातक शिक्षा अधिक कारगर और मान्य होगी? दिल्ली विश्वविद्यालय के अधिकारियों के मुताबिक विषयों में खास तब्दीली की आवश्यकता नहीं है। वे छात्रों को कुछ आधार-क्षमताएं ग्यारह आधारभूत कार्यक्रमों द्वारा देना चाहते हैं, जो उन्हें बाजार के लायक बना सकेंगे। इनके प्रकाशित होने के बाद विशेषज्ञों को कहना है कि इन ग्यारह आधार-कार्यक्रमों में ऐसा कुछ नहीं है, जो पहले की कमीकी भरपाई कर सके। अब तो ऐसा लगता है कि हमारे अधिकारी और छात्र दोनों ही एक दुश्चक्र में फंस गए हैं, जिससे निकलने का रास्ता उनके पास नहीं रह गया है। 
व्याख्यान दोनों ही कहलाते हैं, लेकिन नुक्कड़ पर दिए जाने वाले भाषण और कक्षा के भाषण में बुनियादी फर्क होता है। दूसरे किस्म का व्याख्यान का मकसद श्रोताओं को प्रभावित कर किसी एक इच्छित दिशा में कार्य-प्रेरित करने का नहीं होता। इसलिए इसके व्याख्याता को अपने विषय पर खुद अपने विश्वास से बिल्कुल अलग शोध से भी छात्रों को परिचित कराना होता है। और उनमें यह यकीन भी दिलाना एक काम है कि इस संबंध में वे स्वयं शोध करके चाहें तो तीसरा नतीजा हासिल कर सकते हैं। अधिकारी विद्वान की अवधारणा आभिजात्यवादी कह कर खारिज नहीं की जानी चाहिए। शिक्षा में हम सुनते उसी की हैं, जिसने उस क्षेत्र-विशेष में जीवन लगा दिया हो। 
समाज में लगातार परिवर्तन की एक भूख रहती है, जिसका विकृत इस्तेमाल भी किया जा सकता है। विश्वविद्यालयों को अपेक्षाकृत जड़ और यथास्थितिवादी कहना आसान है। विश्वविद्यालय का काम रोज यह अंदाजा लगाते रहना नहीं है कि बाजार को कल किस तरह के लोग चाहिए। वह नौजवानों को अब तक सृजित ज्ञान की गहनता से परिचित कराने, उसे नई दिशा में ले जाने का विश्वास उनमें पैदा करने और उसे नए सिरे से परिभाषित करने की मौलिक सृजन क्षमता का साहस देने का काम करता है। एक तरह से वह उपयोगिता के सिद्धांत का प्रतिकार भी करता है। जो शिक्षा संस्थान उपयोगितावाद के आगे घुटने टेक देता है, उसे संसार के दो सौ क्या, पांच सौ विश्वविद्यालयों की सूची में भी जगह पाने की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए। वह फिर नए नियम बनाता नहीं, नियमों का दास भर रह जाता है।

शनिवार, 16 मार्च 2013

शिक्षा , एन जी ओ और व्यक्तिगत स्वार्थ : संदीप नाईक





1   मुझे तो लगता है शिक्षा से सारे कारपोरेट और एनजीओ हट जाये तो शिक्षा का बड़ा एहसान होगा जितना कबाडा इन नौसिखियों ने नवाचार के नाम पर किया है गत साठ बरसों में और शिक्षा और शिक्षकों के नाम पर गढ़ और मठ बनाकर ससुरे बैठे है. इससे तो बेहतर है कि शिक्षा को शिक्षा के नाम पर छोड़ दो और इन सबको बाहर करो अपनी रोजी रोटी और जिंदगी चलाने के नाम पर प्रयोग और कुत्सित कामनाओं के नाम पर पुरे परिदृश्य का कबाडा कर रखा है. मै बहुत जिम्मेदारी और गंभीरता से यह कह रहा हूँ और फ़िर टुच्चे टुच्चे प्रयोग छोटे स्तर पर करने से कोई हालात नहीं सुधर सकते. जो लोग शिक्षा का क, ख, ग , घ नहीं पढ़े वो शिक्षा के रसूखदार बने बैठे है और लाखों कमा रहे है और हालात यह हो गये है कि इनके घटिया प्रयोगों और नवाचारों से हिन्दुस्तान की पीढियां बर्बाद हो गई है और आज देश ने भ्रष्ट, दुराचारी और दानव ही पैदा किये है और इस सबके लिए ये ही जिम्मेदार है. मै एक सच्ची और क्रूर वास्तविकता कह रहा हूँ. जाकर देखिये ग्रामीण क्षेत्रों में किस तरह से अनपढ़ गंवार और मूर्ख किस्म के एनजीओ कार्यकर्ता स्कूलों में प्रयोग कर रहे है किस तरह के लोग वहाँ शिक्षा की बहस कर रहे है, और किस तरह के कार्पोरेटी लोग अपनी रोटी गरीबी से कमा रहे है. ये वो शातिर लोग है जो सब कुछ कर सकते है क्योकि इनके बाप दादे प्रशासन, उद्योगपति घरानों और राजनीती से आते है. शिक्षक से पूछिए कि क्या वो यह सब चाहता है या उसे थोप दिया गया है यह सब.......? जैसे जनगणना, आर्थिक गणना, पशु गणना, चुनाव, नसबंदी और ना जाने क्या क्या......जब तक शिक्षा से ये तथाकथित प्रयोगधर्मी और नवाचारी (बुद्धिजीविता का व्याभिचारी) नहीं हटेगा तब तक शिक्षा का कोई सुधार नहीं कर सकता. करोड़ों रूपये लगाकर शिक्षा में जो औधोगिक घराने स्कूल की सीमा में घूस रहे है उनपर लगाम कसी जानी चाहिए. मप्र में पिछले तीस बरसों में कई संस्थाओं ने शिक्षा की जो दुर्गति की है उसका हिसाब लिया जाना चाहिए. इसमे वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी भी शामिल रहे है और तमाम शिक्षाविद भी जो अपने विभाग के लिए सिर्फ कूड़ा-कचरा थे. अब ये ही कारिंदे देश भर में और तमाम वृद्धाश्रमों में शिक्षा की दुर्गत कर रहे है और लालच सिर्फ और सिर्फ रूपया है अपनी संस्था का कॉर्पस जुटाना है बढ़ाना है बस.

2  मेरे कमेंट्स पर Rajesh Utsahi के लिए मेरी तल्ख़ प्रतिक्रिया..............राजेश भाई बिलकुल सहमत हूँ पर मेरे विकसित होने में एकलव्य का कोई योगदान नहीं है मै जहां भी होता इसी तरह का काम करता यह बात बहुत कचोटता है कि एकलव्य ने मेरा जीवन सुधार दिया एक बार सुनील गुप्ता को एकलव्य के किसी सज्जन ने कह दिया था वह जवाब ऐसा करारा था कि बस.खैर मै उस बहस में नहीं पडना चाहता, सिर्फ यह कि अगर मै, बंधू, दिनेश पटेल या दिनेश शर्मा, प्रकाश कान्त या यतीश भाए जैसे लोग अपना जीवन नहीं खपाते तो सारे सुधार हवा में रह जाते !!! देखा नहीं था बाबरी मस्जिद के बाद क्या दुर्गति हुई थी बड़े आकाओं की. और जहां तक अजीम प्रेमजी की बात है मै चाहता था क्योकि मुझे लगा था कि वहाँ शिक्षा का काम हो रहा है और आर्थिक रूप से वो बेहतर पैकेज दे रहे थे, जिसके लिये आप भी भोपाल छोड़कर बेंगलोर गये थे, इसमे गलत क्या है? परन्तु जब मुझे यह लिखित में कहा गया कि शिक्षा में मेरा अनुभव नहीं है बावजूद इसके कि दस साल मैंने CBSE Schools, Army School में और दीगर स्कूलों में पढ़ाया और प्राचार्य का काम किया है, दस साल एकलव्य में काम किया है तो मुझे अजीम प्रेमजी में बैठे मूर्ख शिरोमणि और रिज्युम चयन करने वालों की कमअक्ली पर तरस आया, भोपाल में जिस तरह के लोगों की भर्ती हुई है वह दिखाता है कि क्या शिक्षा की समझ वाले लोग वहाँ बैठे है, यह मेरा नहीं कई वरिष्ठ लोगों का मूल्यांकन है कि शिक्षा के अलावा काम करने वाले यहाँ विशेषग्य है....हा हा हा, खैर मै किसी की योग्यता पर सवाल न्ही उठा रहा बल्कि आपने याद दिलाया मुझे तो, मै भी "कह ही दूँ के" भाव से कह रहा हूँ. मैंने तय किया कि ऐसे मठ या वृद्धाआश्र्रम में नहीं जाउंगा जो सिवाय कार्पोरेटी चापलूसी के अलावा कुछ नही कर पायेंगे. और अब सवाल निंदा का तो जो काम कर रहे है उनका सम्मान अपनी जगह है और काम की शैली अपनी जगह. मै पुनः कहना चाहता हूँ कि मै बहुत गंभीरता से लिखता हूँ और जो आप कह रहे है कि "आप यहां जो बात कहते हैं उसे लोग गंभीर मानकर उस पर अपनी प्रतिक्रियाएं भी देते हैं। इनमें अधिकांश युवा हैं।" ये युवा कई गुना समझदार है मेरे और हम-आप से, जब हम युवा थे. ये पीढ़ी अपना शोषण नहीं करवाती, ना ही इमोशनल ब्लेकमेल का शिकार है, ना ही छोटे कस्बों से आई है. एक बात तो आप मानेंगे ही कि हम सब एकलव्य में शोषित- दमित थे तभी तो आप भी सत्ताईस बरसों बाद अजीम प्रेमजी में चले गये चाहे कारण जो भी हो आर्थिक, स्वतन्त्रता, या नया करने की ललक...और मै इसलिए बाहर आया कि टाटा का रूपया खाकर / लेकर मै देवास में मई दिवस नहीं मना सकता था और ना ही नुक्कड़ नाटक कर सकता था, पर...... .खैर ! और जहां तक निराशा की बात है वो मुझमे नहीं है मै अभी भी फील्ड में सक्रीय हूँ और कई आन्दोलनों से जुडा हूँ, चीजों को आर-पार देखना निराशा नहीं एक समझदारी है और हर पहलू को पैतालीस की उम्र में जोश से देखने के बजाय समालोचनात्मक तरीके से देखना एक महती जिम्मेदारी और समझदारी हुआ करती है क्योकि इन्ही युवाओं के सामने सच्चाई रखना हमारा काम भी है....शायद आप इससे सहमत हो...राजेश भाई. सकारात्मकता जोश में ही अच्छी होती है मप्र के शिक्षा परिदृश्य से और राजनीती से आप परिचित ही है और एकलव्य का ही उदाहरण ले तो बता दे कि होविशिका का क्या हुआ, या आज एकलव्य का नेतृत्व किसके हाथों में है - यह वही दिल्ली का गेंग है जो उस समय भी हावी था और आज भी हावी है. राजेश और संदीप तब भी उपेक्षित थे और आज भी उपेक्षित ही होते यदि वहाँ सड रहे होते तो जैसे कि हमारे कई साथी है आज भी वहाँ, और एकलव्य का शिक्षा से आज क्या जुड़ाव है सिवाय किताब छापने और बेचने से ज्यादा, या दूसरे राज्यों में कंसलटेंसी आधार पर किताबे ठेके पर तैयार करवाने के अलावा...एनजीओ को हर जगह से हटाना चाहिए या नहीं यह बड़ा मुदा है पर एनजीओ ने जो गन्दगी फैलाई है उसे साफ़ करने में सदियाँ लग जायेंगी यह निश्चित है और यह मै पुनः पुरे "होशो-हवास" में कह रहा हूँ. इसे मेरा फ्रस्ट्रेशन नहीं समय की मांग पर एक सही आकलन और जिम्मेदाराना बयान के रूप में दर्ज किया जाये. मै यह सब इतना व्यक्तिगत नहीं लिखना चाह रहा था परन्तु "आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया" वाला गाना है रफ़ी साहब का ....

गुरुवार, 7 मार्च 2013

धर्म , कानून और स्त्री अधीनता



वह उसे प्रतिदिन नहीं तो मौके – बेमौके जरूर पीटता है , क्या पहनना है और घर से बाहर कदम नहीं रखना है से लेकर किस रिश्तेदार के यहाँ जाना है किसके यहाँ नहीं यह भी वही तय करता है । फिर भी सीता मौसी को देखा जाये तो सप्ताह के एक दो दिनों को छोडकर हर दिन के स्वामी को जन्म-जन्मांतर तक उसी व्यक्ति को पति बनाने के लिए व्रत रखकर खुश करती रहती है । यदि सचमुच व्रत करने का फल मिल जाए तो यह बात कल्पनातीत नहीं है कि उसे जन्म-जन्मांतर तक कितना कष्ट भोगना है । उसकी पिटाई , उसकी अस्तित्वहीनता और उसे मिलने वाले दुत्कार निरंतर चलते ही रहेंगे उसके खत्म होने की स्थिति बस उतनी ही अवधि की होगी जबतक कि अगले जन्म में उसकी शादी फिर उसी व्यक्ति से नहीं हो जाती । इतना सब होने के बावजूद वह व्रत आदि करके उसी पति को मांग रही है । हम तमाम आर्थिक आत्मनिर्भरता की कमी को इसका कारण बता दें पर यह समुचित कारण बनकर उभर नहीं पाता । पति की लंबी उम्र के लिए करवाचौथ आदि तमाम तरह के व्रत वे भी पूरे होशो-हवश में करती हैं जो विश्वविद्यालयों में वरिष्ठ प्राध्यापकों तक पहुँच गयी हैं । इस तरह से सीता मौसी अकेली स्त्री नहीं है उनके ही ससुराल में बहुत सी अन्य स्त्रीयां हैं जो अपने पतियों से पिटती हैं । इस तरह से उसे या उस जैसी अन्य स्त्रियों को अपनी दशा अनोखी नहीं लगती । फिर कोई वजह ही नहीं बंता कि , पति को इसका कारण माना जाए । पति तो बस माध्यम है उनका तो भागे ( भाग्य ही ) खराब है
              दिल्ली में हमारी गली में रात के 11 बजे के बाद प्रतिदिन चीख पुकार होती थी (आज भी होती होगी) फिर गली में भाग-दौड़ होती कोई भाग रहा होता और कुछ कदम उसके पीछे दौड़ रहे होते । एक दिन गेट खोलकर देखा तो एक सिपाही जो शायद तभी तभी ड्यूटी से वापस आया था वह बानियान और खाकी पेंट में एक कमजोर सी दिखने वाली औरत को पीट रहा था , उसका बच्चा उसके पैरों से चिपका जा रहा था । जल्द ही हमारी मकान मालकिन ने गेट बंद केआर वापस आने का आदेश दे दिया । बाद में उनहोने ही बताया कि वह व्यक्ति दिल्ली पुलिस में सिपाही है इसलिए कोई उससे नहीं उलझता । मैंने भी कुछ नहीं किया अलबत्ता दिल्ली महिला आयोग को लिखा जरूर और हम सब गली वालों की तरह उसने भी कुछ नहीं किया । एक दिन उस स्त्री को भी गली भर की सुहागिनों के साथ बैठकर सुहाग के लिए कोई पूजा करते हुए देखा वो भी भारी मेक-अप के साथ ।
            यह बहुत ही रोचक सी दशा हुई कि जिसके हाथों रोज़मर्रा की मौत मिले उसकी ही लंबी आयु और उसे ही बार बार पाने की प्रार्थना की जाए । इसके पीछे समाज में नए सदस्यों के होने वाले प्रशिक्षण कुछ मदद करते प्रतीत होते हैं । लड़कियों को बचपन से ही इस तरह से सिखाया जाता है कि आगे चलकर सबकुछ बड़े स्वाभाविक ढंग से झेलने लगती है । उनकी तैयारी ही इस तरह कारवाई जाती है कि वह अन्तः एक दोयम दर्जे के नागरिक के हैसियत तक पहुँच जाती है । इस संबंध में लीला दुबे का लेख पितृवंशीय भारत में हिन्दू लड़कियों का सामाजीकरण देश भर में इस तरह के प्रशिक्षणों की सूचना देता है जो स्त्री को स्त्री बनाए रखने में आगे मदद करते हैं ।
प्राचीन भारतीय लेखन और धार्मिक साहित्य मिलकर स्त्री की असपष्ट और भ्रामक तस्वीर बना देते हैं फिर स्त्री को जीवन पर्यंत इसी उलझे स्वरूप में रखकर उसके साथ व्यवहार किए जाते हैं । एक तरफ तो यह कहा जाता है कि शास्त्रों में उसे देवी कहा गया है । वो देवी प्रसन्न होने पर किसी की भी इच्छा पूरी कर सकती है और यदि क्रोधित हो गयी तो भयानक विनाश ल सकती है जो केवल एक के विनाश तक सीमित नहीं है बल्कि समूहिक विनाश भी कर सकती है । तात्पर्य यह कि वह बहुत शक्तिशाली है । परंतु अगले ही लेखन में यह छवि बनाई जाती है कि उसका मन स्थिर नही रहता , वह मुक्ति या निर्वाण के रास्ते से भटकाने का कार्य करती है । अपरिपक्वता और लालच आदि उसमें कूट कूट कर भरे होते हैं । मेरे घर में स्त्रियों पर होने वाली बातचीत के समय मेरे पिता सहज ही शास्त्रीय मुद्रा धरण कर लेते हैं और शास्त्र से एक श्लोक कह उठते हैं
              त्रिया चरित्रम पुरुशस्य भाग्यम
              देवो न जानती कुतो मनुष्यम     ।
और यदि किसी स्त्री से खुश हो गए तो –
               खन देवी नागिन
               खन अनुरागिन
               खन खन कन्याकुमारी   ।
इन दोनों तरह की छवियों को स्पष्ट ही स्त्रियों ने स्वयं नहीं गढ़ा अर्थात स्वयं अपने लिए नहीं लिखा । ऐसे समाज में जहां उन पर तमाम प्रतिबंध हों वहाँ उनकी शिक्षा दीक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती तो उनके लेखन को स्वीकार कर लेने की बात तो बहुत दूर है । यह सब उसके ऊपर एक तरह की श्रेष्ठता के अहंकार में लिखा गया है और लंबे समय तक दूरियाँ तय करते हुए सामाजीकरण दर सामाजीकरण यह आज के स्वरूप तक पहुंचा है ।
   लंबे समय से चूंकि कथित तौर पर स्त्री को हीं लिंग का माना जाता रहा है अतः उसे बहुत से अधिकारों और विशेषाधिकारों से वंचित रखने की परंपरा रही जिन अधिकारों और विशेषाधिकारों को पुरुषों का माना गया । इसी ने उन्हें पुरुषों के अधीन रखने की सैद्धांतिकी का निर्माण किया जहां कोई भी पुरुष योग्य से योग्य पत्नी के अस्तित्व को अपने से नीचे ही मानता है ।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह अधीनता मुख्य रूप से बहुसंख्यक हिंदुओं में है लेकिन यह यहाँ के इस्लाम और इसाइयों में भी देखे जा सकते हैं । एक तरह से स्त्री अधीनता की यह स्थिति भारत भर का सच है जिसमें धर्म का बहुत बड़ा योगदान है । भारतीय संविधान यह घोषित तो कर देता है कि कानून के सामने स्त्री और पुरुष दोनों समान हैं पर वह अपनी ही एक व्यवस्था से पुनः बांध जाता है और समानता संबंधी जो बात स्त्रियों के जीवन में आमूल परिवर्तन ला सकती थी वह प्रभावहीन होकर रह जाती है । संविधान में व्यक्ति को अपना धर्म मानने और उसके अनुसार आचरण करने की स्वतंत्रता है यही स्वतन्त्रता स्त्रियों के लिए घातक हो जाती है क्योंकि भारत में परिवार और वैयक्तिक कानून में धर्म का ही बोलबाला है । यहाँ धर्म स्त्रियों को यह अधिकार नहीं देता कि वह विवाह के बाद कहाँ पर रहेगी यह तय है कि वह पिता का घर छोडकर पति के घर आएगी इस लिए उसे बचपन से तैयार किया जाता है । फिर माइका उसे उसके भावी जीवन के लिए तैयार करता है । धर्म की व्याख्या समय समय पर बदलती रहती है जो अपने आप में आए कट्टर पंथी तत्वों के हिसाब से स्त्रियों पर तमाम तरह की पाबन्दियाँ लगाने का कार्य करती है ।
सीता मौसी का ससुराल या कि भारत का कोई अन्य स्थान धर्म के चंगुल से मुक्त नहीं है अतः उन पर धर्म के अधीन आचरण करने का दबाव लगातार बना ही रहेगा । और कुछेक स्त्रियों के मुक्त होने को हम बहुत बड़ी उपलबद्धि मान कर बैठ जाएँ तो यह हमारी खुशी है ।   

बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

‘एकुशे फरवरी’ भाषायी अस्मिता की स्वर्णिम तिथि : सुशील कृष्नेत


   
              “कॉमरेड शोन बिगुल ओइ हांकछे रे
              कारार ओइ लौहो कॉपाट भेंगे फैल
सुशील कृष्नेत
              कोरबे ओइ लोपाट ।
              मोदेरे गारोब ।
              मोदेर आशा ।
              ऑ मोरी बांग्ला भाषा ...”
          (कामरेड सुनो-बिगुल बज रहा है, कारागार के उस लौह कपाट को तोड़ डालो, नहीं तो वे हमारी बांग्ला-भाषा को जो हमारा गर्व है , हमारी आशा है, मिटा कर रख देंगे...)
          यह बांग्ला गीत है जिसका वर्णन चर्चित उपन्यास “मैं बोरिशाइल्ला” (लेखिका महुआ माजी) में है जिसे बांग्लादेश के मुक्ति आन्दोलन के दौरान बंगाली युवा गाते थे । वस्तुतः 21 फरवरी को “अंतर्राष्ट्रीय मातृ-भाषा दिवस” बनाये जाने के नेपथ्य में बांग्लादेश का मुक्ति-संग्राम की ही पटकथा है । बांग्लादेश की आज़ादी के लिए शेख़ मुज़ीब ने जिस मुक्तिवाहिनी का संगठन किया था उसका इतिहास देखें तो वह 21 फरवरी 1952 से शुरू होता है । मुज़ीब जो खुद ढाका विश्वविद्यालय के उस समय छात्र थे, ने छात्रों को संगठित कर भाषा संग्राम परिषदबनायी । आगे चलकर यही संगठन मुज़ीब-वाहिनी में बदला बाद में मुक्तिसंग्राम छिड्ने की घोषणा के बाद यही मुक्ति-वाहिनी के रूप में प्रकट हुआ ।
          मातृ-भाषा को समर्पित 21 फरवरी का दिन बांग्लादेश में तो 1952 से ही मनाया जाता है लेकिन वैश्विक परिदृश्य में इसकी शुरुआत 2000 से हुई । 17 नवम्बर, 1999 को युनेस्को (UNESCO) ने विश्व में भाषाई एवं सांस्कृतिक विविधिता के संरक्षण तथा बढ़ावे के लिए 21 फरवरी का दिन  “अंतर्राष्ट्रीय मातृ-भाषा दिवस” के रूप में मनाये जाने की घोषणा की ।
          भाषा से जुड़ी एक यूरोपीय लोक-कथा के अनुसार एक बार आदम के बेटों ने स्वर्ग तक पहुँचने के लिए एक मीनार बनाने कि योजना बनायी । ईश्वर ने उनके मंसूबे पर पानी फेरने के लिए उन्हें अलग-अलग भाषा दे दी । फलतः वे आपस में उलझ पड़े और मीनार कि योजना, योजना ही रह गयी । मीनार की योजना असफल क्यों रह गयी ? जाहिर है उसके निर्माता अलग-अलग भाषा के थे । आपसी संवाद कायम न हुआ और योजना मूर्त रूप न ले सकी । भाषा की यही समाजिकता है । वह मात्र व्याकरण नहीं है न सिर्फ संवाद का माध्यम बल्कि भाषा सामाजिक अनुबंध का भी माध्यम है । यह भाषा ही होती है जो किसी एक समुदाय की संस्कृति, धर्म, परम्परा इत्यादि अन्तः सूत्रों को पिरोती है । सामाजिक-सांस्कृतिक तत्व होने के साथ ही साथ अवस्था विशेष में वह राजनीतिक प्रश्न भी बन जाती है । अगर कहीं पराधीनता या वाह्य-आक्रमण का सम्बन्ध भाषा की सुरक्षा से जुड़ जाये तो एक भाषा राष्ट्रवाद से जुड़ जाती है । भाषा और राष्ट्रीय अस्मिता का प्रश्न कई राष्ट्रों के उद्भव, विघटन व पुनर्निर्माण का कारण भी बना । यूरोप में आयरलैण्ड के पुनर्जागरण के साथ ही गैलिक भाषा को पुनर्जीवित करने का तीव्र प्रयत्न न किया जाता तो वहाँ राजनीतिक चेतना का विकास न हो पता । स्पेन और फ्रांस के बीच बास्क अलगाववाद का मुद्दा भाषा से ही जुड़ा है । पाकिस्तान के बनने के पीछे धार्मिक और राजनीतिक कारक तो थे ही लेकिन उर्दू के नाम पर मुस्लिम लीग द्वारा मुस्लिमों को इकट्ठा कर एक देश का स्वप्न दिखाया जाना भी इसका एक अन्य कारण था ।
          विभाजन के बाद भावी पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी या बांग्ला ? या फिर दोनों ? संभवतः इसी प्रश्न ने बांग्लादेश बनने की नींव डाली थी । पाकिस्तान की संविधान सभा के द्वितीय सत्र में धीरेन्द्र नाथ दत्त ने 69 मिलियन पाकिस्तानी नागरिकों में से 44 मिलियन के बांग्लाभाषी होने के कारण बांग्ला को राष्ट्रभाषा बनाए जाने का प्रस्ताव रखा । लेकिन यह प्रस्ताव पास न हो सका । लियाकत अली खान ने मुस्लिम राष्ट्र की दुहाई देते हुये उर्दू को ही राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाए जाने की बात कही । 21 मार्च, 1948 को ढाका विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में खुद जिन्ना उर्दू को राष्ट्रभाषा घोषित कर आए । आगे चलकर 27 जनवरी,1952 को तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नाज़िमुद्दीन भी जिन्ना कि तरह ढाका के पल्टन मैदान से घोषणा कर बैठे कि उर्दू ही देश कि राष्ट्रभाषा होगी । 30 जनवरी, 1952 को मुस्लिम लीग को छोड़ पूर्वी पाकिस्तान की सारी पार्टियों राष्ट्रभाषा संग्राम समिति गठित की और आगामी 21 फरवरी को राष्ट्र भाषा दिवस के रूप में मनाये जाने की योजना बनायी । योजना के अनुसार 21 फरवरी,1952 को  पूर्वी पाकिस्तान में हड़ताल हुई , ढाका के राजपथ पर विशाल जुलूस निकाला गया । इन सबकी अगुआई कर रहे थे शेख़ मुजीबुर्रहमान । विरोध को दबाने के लिए लाठीचार्ज हुआ , जुलूस पर गोलियां चलायीं गयीं । इस हिंसक दमन में कई छात्र शहीद हो गए । छात्रों की शहादत व पुलिस की बर्बरता ने पूर्वी पाकिस्तान में प्रतिशोध की आग भड़का दी । “एकुशे फरवरी” राष्ट्रीय नारा बन गया । भाषा का यह व्यापक आन्दोलन मुक्तिसंग्राम की आग में घी का काम किया । जिस स्थान पर छात्र शहीद हुये थे वहाँ एक शहीद मीनार स्थापित की गयी । युनेस्को (UNESCO) ने इसे “अंतर्राष्ट्रीय मातृ-भाषा दिवस” के प्रतीक के रूप में माना है ।
      इतिहास में दर्ज़ 21 फरवरी की तारीख भाषाई अस्मिता की स्वर्णिम  तिथि है । यह एक तरफ भाषा की शक्ति को प्रदर्शित करती है दूसरी तरफ राष्ट्रवाद का एक नया आयाम खोलती है । बेंडिक्ट एंडरसन ने राष्ट्रवाद के इस रूप के बारे में लिखा है कि राष्ट्रवाद का एक रूप भाषायी राष्ट्रवाद है । यूरोप में जिसकी उत्पत्ति का दार्शनिक आधार हेर्डर और रूसो कि सैद्धांतिक स्थापनाओं को माना जाता है । इसके अंतर्गत यह विश्वास निहित है कि प्रत्येक राष्ट्र को सही मायने में उसकी विशिष्ट भाषा और साहित्यिक संस्कृति के द्वारा समझा जा सकता है क्योंकि यही दोनों जनता कि ऐतिहासिक प्रज्ञा को व्यक्त करता है । वस्तुतः हम ही सही हैं के आगे वो भी सही हैं को जब तक हम जगह नहीं देंगे तब तक नीत्शे के उस उक्ति के उत्तराधिकारी होंगे जिसमें वह कहता है कि इतिहास का वारिस होना खतरनाक है । हम ऐसे ही इतिहास के वारिस बनते जाएंगे साथ ही न जाने कितने पाकिस्तान’,कितने बांग्लादेश,कितने फिलिस्तीन और इज़राइल बनाते जाएंगे ।