रविवार, 19 मई 2013

शिक्षा में आपातकाल





दिल्ली विश्वविद्यालय का 4 वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम उसके प्रबन्धकों द्वारा  सराहा जा रहा है  जबकि देश के जाने माने शिक्षाशास्त्री इसकी उतनी प्रशंसा नहीं कर रहे हैं ... इस बारे में आज  जनसत्ता में प्रकाशित अपूर्वानंद का यह लेख इस बहस को  आगे बढ़ता है .... हम यहाँ पोटली पर इसे जनसत्ता की वेब साइट से लेकर प्रकाशित कर रहे हैं ... इसके लिए हम उसके आभारी हैं ... 









 अकादमिक मामलों में कभी आपातकाल नहीं हो सकता।इस वाक्य को हर विश्वविद्यालय और शिक्षा से जुड़ी संस्था के प्रशासनिक कक्ष में टांक देना चाहिए। पिछले कुछ समय से दिल्ली विश्वविद्यालय में आनन-फानन में लाए गए चार-वर्षीय पाठ्यक्रम पर चल रही बहस के संदर्भ में विधिवेत्ता उपेंद्र बक्शी का यह वाक्य फिर से प्रासंगिक लगने लगा है। बक्शी का मानना है कि शिक्षा से जुड़ा कोई भी फैसला पर्याप्त विचार-विमर्श के बिना नहीं किया जा सकता। पर्याप्त कब पर्याप्त माना जाएगा?’ आपातकाल के समर्थक पूछते हैं। वे कहते हैं, पहले ही बहुत देर हो चुकी है। हम एक टाइम बम पर बैठे हैं। अगर फौरन कुछ न किया गया तो अंत निश्चित है। 
हमारी शिक्षा नौजवानों को कोई हुनर नहीं देती। बाजार समझ नहीं पाता कि भारतीय शिक्षा संस्थानों से निकले स्नातकों को क्या काम दें!शिक्षित नौजवानों से यह निराशा उद्योग जगत की है जिससे राजनेता, नौकरशाह और नीति-निर्माता सहमत नजर आते हैं। अपराधबोध से ग्रस्त शिक्षा जगत भी इसे मान लेता है। बिना पूछे, जो शिक्षा जगत का बुनियादी काम है, कि इसका ठीक-ठीक अर्थ क्या है? और क्या यह समस्या मात्र भारत की है या उन देशों की भी है, जिनकी शिक्षा-व्यवस्था को हम प्राय: आदर्श मानते हैं? बाजार के लायक नौजवान तैयार करना हमारा काम नहीं है, इस प्रकार का उत्तर स्वीकार्य नहीं है। इसमें एक प्रकार के आभिजात्यवादी अहंकार की बू आती है। 
शिक्षा और बाजार के रिश्ते को कैसे समझा जाए? मसलन, बाजार यानी शिक्षा संस्थानों से क्या उम्मीद करता रहा है, जिसे वे पूरा नहीं कर पाए हैं? क्या हमारे पास इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए किया गया कोई शोध या अध्ययन है? समस्या की निशानदेही हम कैसे कर पा रहे हैं? या इसके भी पहले प्रश्न यह किया जाना उचित होगा कि क्या हमें  ठीक-ठीक पता है कि समस्या ही क्या है? बिना ठीक निदान के चिकित्सा कैसे की जा सकती है? 
चारसाला स्नातक स्तरीय पाठ्यक्रम के पक्ष में जो सबसे बड़ा और अपील करने वाला तर्क दिया जा रहा है, वह यह कि हमारे स्नातक बाजार के लायक नहीं हैं। लेकिन यह हमें मालूम ही कैसे हुआ? आशय यह कि हमारे स्नातक अपने संस्थानों से निकल कर कहां जाते और क्या करते हैं, यह जानने की कोशिश कभी किसी संस्थान ने की नहीं है। इसलिए हमारे पास उनकी बाजार में खपत, बाजार की उनसे संतुष्टि के तालमेल के बारे में कहने को कुछ भी ठोस नहीं है। क्या दिल्ली विश्वविद्यालय या किसी भी और विश्वविद्यालय को अपने स्नातकों में दिलचस्पी रही है? अगर उनके बारे में जानकारी की यह कमी है तो इस संबंध में कुछ किए जाने की जरूरत है, न कि बिना किसी आधार के ऐसे वक्तव्य देने की कि हमारे स्नातक किसी काम के नहीं हैं।  
फिक्कीऔर एसोचैमजैसी संस्थाओं ने बीच-बीच में विश्वविद्यालयी शिक्षा और बाजार की अपेक्षाओं के बारे में जो अध्ययन कराए हैं, वे भी बाजार के कुछ हिस्सों के बारे में ही हैं। उनकी शिकायत प्राय: यह रही है कि इन क्षेत्रों में आने वालों के पास अभिव्यक्ति और अंतरवैयक्तिक संबंध को निभाने जैसे कौशल नहीं हैं। इन्हें वे सॉफ्ट स्किल्सकी कमी कहते हैं। इन अध्ययनों में भी प्रत्याशियों के अपने विषय के ज्ञान को लेकर कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं मिलती।  
हमारे पास शोध और अध्ययन की जगह किस्से ज्यादा हैं। और हम जानते हैं कि कमजोर के मुकाबले ताकतवर के किस्से में ज्यादा दम होता है। लेकिन एक और स्थिति हो सकती है। मसलन, एक ही तरह के किस्से आम हों तो भी उनसे कुछ नतीजे निकाले जा सकते हैं। मसलन, हमें पता है कि लगभग हर राज्य में कॉन्स्टेबल जैसे पद के लिए एमए, पीएचडी की योग्यताओं के साथ लोग आवेदन कर रहे हैं। इससे क्या नतीजा निकलता है? क्या यह कि इन उपाधियों का स्तर इतना गिर गया है या यह कि इन उपाधियों के लायक बाजार में काम नहीं है? यह सवाल इसलिए जरूरी है कि अगर हमारे पास दो अलग-अलग जवाब हैं, तो शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन दो भिन्न प्रकार से करने होंगे।
स्नातकों की कार्यक्षमता को लेकर हमारे पास कोई अध्ययन नहीं है। आमतौर पर माना जाता है कि हमारी डिग्रियों में बाजार को अपील करने की ताकत बहुत कम है। इसे हम उनकी सिग्नलिंग वैल्यूकहते हैं। लेकिन इससे हमारी डिग्रियों की औसत गुणवत्ता के बारे में किसी राय का पता नहीं चलता। डिग्री की औसत गुणवत्ता और 

उसकी सिग्नलिंग वैल्यूबिल्कुल भिन्न हैं। क्या इस बात को ध्यान में रख कर कोई  अध्ययन कराया गया है? अगर नहीं तो हम इस सिलसिले में भी कोई नीति कैसे बना सकते हैं? 
नीतियां किस्सों-कहानियों और हमारे विश्वासों के आधार पर नहीं बनतीं। इसीलिए योजना आयोग विभिन्न नीति संबंधी क्षेत्रों के लिए अध्ययन कराता है। वहां भी शिक्षा के मामले में शोध न के बराबर है। इसलिए समितियों में बैठे लोगों के अपने अनुभवों और अंधविश्वासों के आधार पर नीतियां बनाई जाती हैं। 
दिल्ली विश्वविद्यालय की अभी की डिग्रियां किसी काम की नहीं रह गर्इं, ऐसा कहने के पहले हमारे पास एकाधिक शोध और अध्ययन होने चाहिए। अगर वर्तमान प्रशासन ने ऐसा कुछ किया होता तो यह उच्च शिक्षा के नियोजन की दिशा में उसका बड़ा योगदान होता। दुर्भाग्य से ऐसा न करके किस्से-कहानी के आधार पर नतीजे निकालने की गैर-अकादमिक आदत को सम्मानित किया गया है। कहा गया कि एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने आकर तकरीबन ग्यारह सौ छात्रों की योग्यताओं की   जांच की और उनमें से सिर्फ तीन को काबिल पाया। 
यह वक्तव्य अगर सर्वोच्च पद से दिया जा रहा हो तो एक नाटकीय गंभीरता हासिल कर लेता है। उस पद के रुआब के मारे यह कोई नहीं पूछता कि क्या इस कंपनी के पास इस प्रकार की जांच की क्षमता है। दूसरे, क्या यह कंपनी गुपचुप बुलाई गई? क्या विश्वविद्यालय में हर छात्र को उनके काम की सूचना दी गई? तीसरे, जिन ग्यारह सौ छात्रों के आंकड़े कंपनी को दिए गए, उन्होंने स्वेच्छा से इस जांच के लिए खुद को प्रस्तुत किया था? अगर नहीं, तो यह सब करना कितना नैतिक था? इन सवालों से बिल्कुल अलग, वह कंपनी इन ग्यारह सौ छात्रों में किस प्रकार के कौशलों की तलाश कर रही थी, जिनके न मिलने से वह निराश हो गई? बिना इन ब्योरों के यह कहना कि ग्यारह सौ में सिर्फ तीन लायक थे, किसी भी अकादमिक समूह में स्वीकार्य नहीं होगा। दिलचस्प गप्प के लिए एक मसाला हो तो हो। 
अगर हम बिना किसी शोध और अध्ययन के मान भी लें कि हमारे शिक्षा संस्थान नालायक स्नातक पैदा कर रहे हैं, तो भी इलाज तीन साल के पाठ्यक्रम की अवधि को बढ़ा कर चार साल करना शायद न होगा। इसमें क्या कुछ जोड़े जाने से अभी की हमारी स्नातक शिक्षा अधिक कारगर और मान्य होगी? दिल्ली विश्वविद्यालय के अधिकारियों के मुताबिक विषयों में खास तब्दीली की आवश्यकता नहीं है। वे छात्रों को कुछ आधार-क्षमताएं ग्यारह आधारभूत कार्यक्रमों द्वारा देना चाहते हैं, जो उन्हें बाजार के लायक बना सकेंगे। इनके प्रकाशित होने के बाद विशेषज्ञों को कहना है कि इन ग्यारह आधार-कार्यक्रमों में ऐसा कुछ नहीं है, जो पहले की कमीकी भरपाई कर सके। अब तो ऐसा लगता है कि हमारे अधिकारी और छात्र दोनों ही एक दुश्चक्र में फंस गए हैं, जिससे निकलने का रास्ता उनके पास नहीं रह गया है। 
व्याख्यान दोनों ही कहलाते हैं, लेकिन नुक्कड़ पर दिए जाने वाले भाषण और कक्षा के भाषण में बुनियादी फर्क होता है। दूसरे किस्म का व्याख्यान का मकसद श्रोताओं को प्रभावित कर किसी एक इच्छित दिशा में कार्य-प्रेरित करने का नहीं होता। इसलिए इसके व्याख्याता को अपने विषय पर खुद अपने विश्वास से बिल्कुल अलग शोध से भी छात्रों को परिचित कराना होता है। और उनमें यह यकीन भी दिलाना एक काम है कि इस संबंध में वे स्वयं शोध करके चाहें तो तीसरा नतीजा हासिल कर सकते हैं। अधिकारी विद्वान की अवधारणा आभिजात्यवादी कह कर खारिज नहीं की जानी चाहिए। शिक्षा में हम सुनते उसी की हैं, जिसने उस क्षेत्र-विशेष में जीवन लगा दिया हो। 
समाज में लगातार परिवर्तन की एक भूख रहती है, जिसका विकृत इस्तेमाल भी किया जा सकता है। विश्वविद्यालयों को अपेक्षाकृत जड़ और यथास्थितिवादी कहना आसान है। विश्वविद्यालय का काम रोज यह अंदाजा लगाते रहना नहीं है कि बाजार को कल किस तरह के लोग चाहिए। वह नौजवानों को अब तक सृजित ज्ञान की गहनता से परिचित कराने, उसे नई दिशा में ले जाने का विश्वास उनमें पैदा करने और उसे नए सिरे से परिभाषित करने की मौलिक सृजन क्षमता का साहस देने का काम करता है। एक तरह से वह उपयोगिता के सिद्धांत का प्रतिकार भी करता है। जो शिक्षा संस्थान उपयोगितावाद के आगे घुटने टेक देता है, उसे संसार के दो सौ क्या, पांच सौ विश्वविद्यालयों की सूची में भी जगह पाने की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए। वह फिर नए नियम बनाता नहीं, नियमों का दास भर रह जाता है।

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