मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012
बिहार के अनुबंधित शिक्षकों के समर्थन में ...
किसी भी समाज में शिक्षकों का आंदोलन करना और उनका जेल जाना समाज की गतिकी को प्रभावित ही नही करता है बल्कि उस पर दूरगामी प्रभाव डालता है । वे अपना आंदोलन उस समय में से समय निकाल कर करते हैं जिसमें उन्हें कक्षा में होना चाहिए । कक्षा का समय समाज के सबसे मत्वपूर्ण हिस्से बच्चों के लिए मुकर्रर है जो उन्हें न केवल शिक्षित करता है बल्कि आगे के जीवन की तैयारी में भी भूमिका निभाता है । हालांकि इन कुछ वाक्यों में आदर्श की उपस्थिती है पर जरा उस स्थिति की कल्पना करते हैं जहां एक गैर बराबरी का समाज है और सामाजिक गतिशीलता में अपनी दशा को ठीक करने के लिए सरकार के द्वारा दी जा रही शिक्षा ही एक मात्र ऐसा कारक है जो व्यक्ति की मदद कर सकता है उस समाज में यदि शिक्षक ही कक्षा से अनुपस्थित होकर आंदोलन कर रहे हों तो वहाँ यह विचार का मुद्दा बन जाता है । बिहार का समाज ऐसा ही समाज है और वहाँ चल रहा अनुबंधित शिक्षकों का उग्र होता आंदोलन इसी बात की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है । इस पर गौर करें तो हम पते हैं कि इन शिक्षकों के आंदोलन की भूमिका इनकी नियुक्ति में ही निहित है ।
एक तो अनुबंध अर्थात ठेका आधारित नौकरी है जहां नौकरी में आवश्यक स्थायित्व का अभाव है जो किसी के भी आत्मविश्वास को लगातार प्रभावित करने के काफी है । यह साधारण मनोविज्ञान है कि यदि आप अस्थायी प्रकार की सेवा में हैं तो सेवा के प्रति आपकी असुरक्षा लगातार बनी रहती है और अंततः यह आपकी कार्यक्षमता को प्रभावित करता है । शिक्षक के मामले में यह केवल उसी तक सीमित नही होता बल्कि आगे बढ़ कर विद्यार्थियों पर भी असर डालता है । इसका लब्बोलुआब यह कि सेवा में इस प्रकार की असुरक्षा से समाज की एक पीढ़ी प्रभावित होती है । अनुबंधित शिक्षकों पर हुए बहुत से शोध में इस बात को रेखांकित भी किया गया है । 'प्रोब रिपोर्ट' का भी मानना है कि अस्थायी प्रकार की सेवा के कारण अनुबंधित शिक्षक अपने काम के प्रति बहुत अन्यमन्स्क हो जाते हैं और इस व्यवस्था में पूरी निष्ठा से काम करने वाले शिक्षक विरले ही मिलते हैं ।
आगे वेतन का मुद्दा है जो इस असुरक्षित प्रकार की नौकरी में 'कोढ़ में खाज' जैसी दशा का निर्माण करता है । अनुबंधित शिक्षकों को 6000-8000 तक प्रति महीने वेतन मिलता है जो वेतनमान पर नियुक्त शिक्षकों की तुलना में चार गुना कम है । इतने कम पैसे में गुजारा चलाने के लिए बहुत बड़े कौशल की आवश्यकता है । इस संबंध में इस लेखक ने एक शोध किया था और उस दौरान बिहार के सहरसा जिले के कई शिक्षक - शिक्षिकाओं का साक्षात्कार किया था । उसी साक्षात्कार के कुछ अंशों को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है ।
1 शिक्षिका कल्याणी कहती हैं '' इतने वेतन में कैसे संतुष्ट होंगे ? मंहगाई के चलते कैसे संतुष्ट होंगे .....एतना मंहगाई में हमलोग को ई साते हज़ार (7000) वेतन मिलता है .... अभी सात हज़ार हुआ है पहले तो पाँचे था । ... तो सात में सोच लीजिये कि एतना मंहगाई में हमलोग कैसे संतुष्ट होंगे । किसी तरह काम चलता है ।''
इस सेवा में विकास की संभावना पर कल्याणी कहती हैं ''इसमें क्या विकास होगा ! इसी में समय कट जाए यही बहुत है । ''
2 शीला कुमारी कहती हैं '' वेतन कुछ संतुष्टि नही है ... जरूरी आवश्यकता की भी पूर्ति नही कर पति हूँ...
इसको हमलोग ठेका पर काम करना समझते हैं ...जिसमें सरकार हमको सात हज़ार में खरीद ली है ....''
'' इसमें कोई विकास नही है ''
3 महबूबा खातून कहती हैं '' एक तो वेतन बहुत कम है दूसरे हमारा वेतन का आधे से ज्यादा तो आने जाने में ही खर्च हो जाता है । सहरसा से यहाँ तक आने में रोज़ का 50-60 रुपया लगा जाता है । अब सोच लीजिये कि हमारे लिए क्या बचता कि खाएं और मौज करें ... ''
4 निरंजन जो सहरसा जिला शिक्षक संघ के अध्यक्ष भी हैं वे कहते हैं '' इतने कम वेतन के कारण कोई इस संघ में पद धरण करने के तैयार ही नही होता है क्योंकि यदि पद लिया तो दस लोग आपसे मिलने आएंगे चाय -पान , फोन , पटना जाने आने आदि में सात - आठ हज़ार कब उड़ जाते हैं पता ही नही चलता ... मैं तो अध्यक्ष बन कर पछता रहा हूँ ...''
इस से एक अंदाज़ा आ जाता है कि शिक्षक-शोक्षिकाओं में इस सेवा में मिल रहे वेतन को लेकर कितनी संतुष्टि है और इसमें विकास की वो कितनी संभावना देखते हैं ।
आगे इसी वेतन से जुड़ा एका और पहलू है विद्यालय में शिक्षकों बीच गैर-बराबरी का । नियमित वेतनमान पर काम करने वाले शिक्षक और अनुबंधित प्रकार के शिक्षक में विद्यालय परिसर से लेकर निजी जीवन दोनों में एक स्पष्ट विभाजन है । निम्न आर्थिक हैसियत के कारण उन्हे कई बार ताने सुनने पड़ते हैं और बार बार उन्हे यह जताया जाता है कि वे नियोजित शिक्षक हैं और दूसरे नियमित वेतनमन वाले । ( इस तरह की अनेक स्थिति इस लेखक ने स्वयं अपने शोध के दौरान देखी और इस सामान्य मानव व्यवहार का अनुमान करना कोई कठिन भी नही है । )इस तरह की स्थिति नियोजित शिक्षकों में हीनता को बढाती है ।
अनुबंधित शिक्षक -शिक्षिकाओं की नियुक्ति शहर तथा गावों के स्थानीय निकायों के द्वारा हुई है जो उन्हें इन निकायो के प्रति जिम्मेदार बनाती है । इसका असर यह होता है कि साधारण सा जन प्रतिनिधि भी इनकी जांच कर सकता है और इसके साथ साथ आम आदमी भी । हालांकि यह एक अच्छा प्रयास है लेकिन इसका खामियाजा अंततः शिक्षकों कोण ही उठाना पड़ता है । उनकी जांच करने वालों की संख्या बहुत हो जाती है और यह उनके कार्यों में अनावश्यक दखल को बहुत ज्यादा बढ़ा देती है जो पुनः उनकी कार्यक्षमता को ही प्रभावित करती है । आगे उनका वेतन मुखिया या इस तरह के अन्य जन प्रतिनिधियों की अनुशंसा के अधीन है जो उन्हे मुखिया के इर्द - गिर्द घूमने के लिए बाध्य कर देता है । बहुत बार उन्हे उन जन प्रतिनिधियों के व्यक्तिगत कार्य भी करने पड़ते हैं मसलन घर के काम आदि । यदि वह प्रतिनिधि जीवन बीमा का अभिकर्ता है तो शिक्षक को उसकी पॉलिसी भी लेनी पड़ती है अन्यथा बिहार सरकार की इस व्यवस्था में अनुबंधित शिक्षक के वेतन को लटका दिया जाएगा ।
इन सब को ध्यान में रखकर अब बिहार में उग्र होते जा रहे अनुबंधित शिक्षक-शिक्षिकाओं के आंदोलन को देखें । हाल में वेतन को लेकर लंबा इंतजार चल रहा है , उनका पदस्थपन एसी जगहों पर है जो उनकी रिहाइश से काफी दूर है , ट्रांसफर करने के लिए बिचौलियों की एक पूरी फौज है जो पैसे मांगती है और अंत में नियमित वेतनमान में जाने की उत्कट इच्छा । ये सब मिल कर अभी के उनके आंदोलन की एक आधारभूमि तैयार करते हैं । उस पर मुख्यमंत्री की अधिकार यात्रा जो उनके लिए एक वरदान का ही काम कर रही है क्योंकि वो जिले जिले में घूम रहे मुख्यमंत्री से सीधे तौर पर विरोध जाता सकते हैं जो कि उनके राजधानी में रहने पर इस तरह संभव नही था । और अब यह संक्रामक तरीके से विस्तार भी ले रहा है । मुख्यमंत्री इसमे विपक्षी की साजिश देख रहे हैं और अपनी हत्या के षड्यंत्र से भी इसे जोड़ रहे हैं जो बड़ा ही बचकाना और हास्यास्पद प्रकार का स्पष्टीकरण प्रतीत हो रहा है । यहाँ हम शिक्षा के स्तर को तो रहने ही दें उसके स्थान पर मुख्यमंत्री केवल शिक्षकों के असंतोष के कारणों को देखें तो उनहे लग जाएगा कि यह उन अनुबंधित शिक्षकों की सहज अभिव्यक्ति है जो अपेक्षित ध्यान न दिए जाने से अराजक स्थिति को भी प्रपट कर सकती है । क्योकि इस समूह में युवाओं की संख्या ज्यादा है जो इस आंदोलन को ठीकठाक गति दे रहे हैं । ऊपर से यदि विपक्ष इसे मदद देता है तो यह नितीश कुमार के लिए खतरे की घंटी है ।
इस आंदोलन में भाग लेने वाले शिक्षक बधाई के पात्र हैं जो इसे प्रकाश में ले आए । बस इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि यह किसी भी दल या गठबंधन के हाथ में न खेलने लगे क्योंकि इससे इसका राजनीतिक इस्तेमाल हो जाएगा और उनके अपने मुद्दे धरे रह जाएंगे ।
रविवार, 22 जनवरी 2012
ये जो शहर है दिल्ली : शचीन्द्र आर्य
कभी कभी बहरूपिये शहर से भाग जाने का मन करता है पर हर बार घुट-घुट कर
यहीं
किसी गली में कोने में रह जाता हूँ. पता नहीं क्यों इतने दिनों से बोरिया -
बोरडम का देसी वर्ज़न - रहा हूँ. कुछ करने का मन नहीं हो रहा. बस
बैठे हैं
खाली निपट अकेले. एक अदद खिड़की है भी पर पहली मंजिल से कूदना भारी पड़ सकता
है. सोनसी तुम तबतक इंतज़ार करो जबतक मैं ग्राउंड फ्लोर पर आता हूँ ..पर जब
तक सीढ़ियों से नीचे आता हूँ तब तक इस थोड़े शहर को देख लूँ.. अटक - भटक
गया हूँ..
ये शहर हर समय एक से नहीं रहते हमारी तरह इनका मिजाज़ भी बदलता रहता है. सुबह जिन चेहरों को छोड़ के जाता हूँ दोपहर में वो नज़र ही नहीं आते. शाम होते होते कई और चेहरे उसमे शामिल हो जाते हैं. सब इतना गड्ड-मड्ड होता जाता है कि कनपट्टी के पास से पसीने की एक बूंद ज़मीन पे गिरने से पहले मुझे सुनाई दे जाती है और पैडल मार के अपनी खोह में कुछ चेहरों को लिए वापास आ जाता हूँ.
कुछ स्टोव के इर्दगिर्द पकती-उबलती चाय के साथ अपने पूरे दिन के नक़्शे को नहीं अपने उस कल को बनाते पकड़े जा सकते हैं. जहाँ चाय की चुस्कियों के साथ हँसता बोलता पूरा परिवार उसके दिल्ली वाले किस्सों का इंतज़ार करता होगा. अपने मुलक जाने वहां की हवा की बात ही कुछ और है..पर पता नहीं दिल की किसी कोने में उसे ये डर भी सताता है कि कहीं पहाड़गंज - बल्लीमारान- गोविन्द पुरी - लाल कुआँ - सदर- आज़ाद मारकेट- खरी बाउली से देर रात लौटते हुए कोई अंधी आलिशान गाड़ी उसे टक्कर न मार जाये और उसके सपने इसी शिवाजी स्टेडियम के इसी फुटपाथ पर अगली सुबह उसके बच गए साथी आपस में बाँट कर अपने अपने सपनों में न खो जाएँ. डर उस अकेले का नहीं उन सबकी सामूहिक संपत्ति है.
वापसी कभी नहीं हो पायेगी और न ही उनके चले जाने के बाद कोई उन्हें याद रखेगा. फिर अगली सुबह होगी. रस- ब्रेड के साथ नाश्ते में अखबार के पन्ने पलट उनमे कुछ अपना ढूंढ़ लेने की कसरत भी होगी. जैसे उनकी कोई कीमत नहीं वैसे ही उनके गाँव में कौन घरे गाय बियाई..?? कौन परधानी में धांधली कर जीत गया..?? ब्लाक परमुख एक्सीडेंट में हड्डी तुराये बइठे.. भिठिया के घसीटे पारय साल गुज़र गए. कोई खबर नहीं छापता. पर रोज़ जागरण से लेकर भास्कर के पन्ने सब पलटते हैं. इसी उम्मीद में की कभी तो कोई खोज खबर लेगा
उधर मोबाईल कम्पनी भी इन्ही की जेब काटे रहती हैं. दस रूपये का टाक टाइम. उसमे कित्ती बात होगी जब तक असल पे आएंगे तबतक पैसा ख़तम. अगली बारी पच्चीस वाला डलवाए के बतियाबे...कभी गुगाद कर उधर से फोन आय अभी तो नंबर बदल चुका होता है.किसी कंपनी ने अपने प्रतिद्वंदी के ग्राहकों में सेंध लगा कर इनको और अस्थायी बना दिया. सोनसी तुम भी तो बोर नहीं हो रही हो न..ठीक है..
इन्होनें अपने खून पसीने से शहर को सींचा है. पर नाम इनका किसी दीवार - किसी गेट पर खुदा हुआ नहीं मिलेगा. नाम लिया भी जायेगा तो किसी लुटियन का. बच्चे यहाँ नहीं तो क्या इसे ही पाला पोसा है. मैंने आज तक मार्क्स को नहीं पढ़ा पर इतना तो मैं भी जनता हूँ कि आर्थिक अभिजिती में ये पराजित से योद्धा हैं. नहीं तो इनके नाम से भी कोई सड़क, कोई धर्मार्थ अस्पताल, कोई ट्रस्ट कहीं न कहीं स्कूल तो चला ही रहा होता..पर नहीं उनकी हैसियत नहीं है न..क्योंकि उनकी कोई सक्रीय आर्थिक हैसियत- भूमिका- औकात [आप इनमे से कोई भी चुनने के लिए स्वतंत्र हैं ] नहीं इसलिये हम उनके सामाजिक अस्तित्व को भी नकार देते हैं. बिलकुल वैसे ही जैसे किसी गरीब से रिश्तेदार को किसी भी घरेलू फैसले में भागिदार नहीं बनाया जाता. न ही उसकी राय को सुनने लायक माना जाता है. वही व्यवहार इनके साथ तब से आज तक और न जाने कब तक होता रहेगा..
शहर को जब तक बने रहना है तब तक इनके साथ यही होता रहेगा..वही रोज़ की चाय के बाद थका देने वाली उबती ज़िन्दगी मुंह पे हाथ रख आंखों पे छ्प्पे मार नींद को कुछ देर और रोक लेने की जिद ताकि कल परसों की तरह फिर मरोड़ होते पेट के साथ सारी रात न जागने पड़े..रोटी भले दुखते दांतों से चबाई न जाती हो, पनियाली दाल में नमक कुछ ज़यादा हो..
पर ये शहर ऐसे ही जिंदाबाद रहे, सौ दो सौ पांच सौ साल पूरे करे इसके लिए इनका होना और ऐसा ही बने रहने बहुत ज़रूरी है..और ये होगा भी क्योंकि न हम इनका अस्तित्व मानते हैं न ये उसके लिए लड़ते हैं..ठीक ही कहा है किसी ने सबसे बड़ी लडाई पेट से ही होती है और ये सब अभी तक इसी से जूझ रहे हैं..और तभी तक...
सोनसी नीचे तो आ गया हूँ पर मन कुछ ठीक नहीं लग रहा और वैसे भी खिड़की के बाहर धुआं है और मेरी आँख में चुभ भी रहा है..फिर कभी मिलेंगे अभी खिड़की बंद कर रहा हूँ..मुझे पता है तुम मुझे समझती हो इसलिए तुम्हे फ़ोन भी नहीं कर रहा हूँ. वैसे भी तुम्हारा नंबर है कहाँ मेरे पास. तुम तो वही मिलती हो खिड़की के पास. आज खिड़की बंद देख तुम खुद समझ जाना कुछ उलझ गया हूँ..बस उन्ही चेहरों में एक चेहरा चायपाओ का तो कभी तुम्हारा दिख रहा है इसलिए आँख मूंद कुछ देर लेटने जा रहा हूँ..
शचीन्द्र. उमर पौने सत्ताईस. मिसफिट होने से बचने की जद्दोजहद में. इनका ब्लॉग है करनी चापरकरन |
ये शहर हर समय एक से नहीं रहते हमारी तरह इनका मिजाज़ भी बदलता रहता है. सुबह जिन चेहरों को छोड़ के जाता हूँ दोपहर में वो नज़र ही नहीं आते. शाम होते होते कई और चेहरे उसमे शामिल हो जाते हैं. सब इतना गड्ड-मड्ड होता जाता है कि कनपट्टी के पास से पसीने की एक बूंद ज़मीन पे गिरने से पहले मुझे सुनाई दे जाती है और पैडल मार के अपनी खोह में कुछ चेहरों को लिए वापास आ जाता हूँ.
कुछ स्टोव के इर्दगिर्द पकती-उबलती चाय के साथ अपने पूरे दिन के नक़्शे को नहीं अपने उस कल को बनाते पकड़े जा सकते हैं. जहाँ चाय की चुस्कियों के साथ हँसता बोलता पूरा परिवार उसके दिल्ली वाले किस्सों का इंतज़ार करता होगा. अपने मुलक जाने वहां की हवा की बात ही कुछ और है..पर पता नहीं दिल की किसी कोने में उसे ये डर भी सताता है कि कहीं पहाड़गंज - बल्लीमारान- गोविन्द पुरी - लाल कुआँ - सदर- आज़ाद मारकेट- खरी बाउली से देर रात लौटते हुए कोई अंधी आलिशान गाड़ी उसे टक्कर न मार जाये और उसके सपने इसी शिवाजी स्टेडियम के इसी फुटपाथ पर अगली सुबह उसके बच गए साथी आपस में बाँट कर अपने अपने सपनों में न खो जाएँ. डर उस अकेले का नहीं उन सबकी सामूहिक संपत्ति है.
वापसी कभी नहीं हो पायेगी और न ही उनके चले जाने के बाद कोई उन्हें याद रखेगा. फिर अगली सुबह होगी. रस- ब्रेड के साथ नाश्ते में अखबार के पन्ने पलट उनमे कुछ अपना ढूंढ़ लेने की कसरत भी होगी. जैसे उनकी कोई कीमत नहीं वैसे ही उनके गाँव में कौन घरे गाय बियाई..?? कौन परधानी में धांधली कर जीत गया..?? ब्लाक परमुख एक्सीडेंट में हड्डी तुराये बइठे.. भिठिया के घसीटे पारय साल गुज़र गए. कोई खबर नहीं छापता. पर रोज़ जागरण से लेकर भास्कर के पन्ने सब पलटते हैं. इसी उम्मीद में की कभी तो कोई खोज खबर लेगा
उधर मोबाईल कम्पनी भी इन्ही की जेब काटे रहती हैं. दस रूपये का टाक टाइम. उसमे कित्ती बात होगी जब तक असल पे आएंगे तबतक पैसा ख़तम. अगली बारी पच्चीस वाला डलवाए के बतियाबे...कभी गुगाद कर उधर से फोन आय अभी तो नंबर बदल चुका होता है.किसी कंपनी ने अपने प्रतिद्वंदी के ग्राहकों में सेंध लगा कर इनको और अस्थायी बना दिया. सोनसी तुम भी तो बोर नहीं हो रही हो न..ठीक है..
इन्होनें अपने खून पसीने से शहर को सींचा है. पर नाम इनका किसी दीवार - किसी गेट पर खुदा हुआ नहीं मिलेगा. नाम लिया भी जायेगा तो किसी लुटियन का. बच्चे यहाँ नहीं तो क्या इसे ही पाला पोसा है. मैंने आज तक मार्क्स को नहीं पढ़ा पर इतना तो मैं भी जनता हूँ कि आर्थिक अभिजिती में ये पराजित से योद्धा हैं. नहीं तो इनके नाम से भी कोई सड़क, कोई धर्मार्थ अस्पताल, कोई ट्रस्ट कहीं न कहीं स्कूल तो चला ही रहा होता..पर नहीं उनकी हैसियत नहीं है न..क्योंकि उनकी कोई सक्रीय आर्थिक हैसियत- भूमिका- औकात [आप इनमे से कोई भी चुनने के लिए स्वतंत्र हैं ] नहीं इसलिये हम उनके सामाजिक अस्तित्व को भी नकार देते हैं. बिलकुल वैसे ही जैसे किसी गरीब से रिश्तेदार को किसी भी घरेलू फैसले में भागिदार नहीं बनाया जाता. न ही उसकी राय को सुनने लायक माना जाता है. वही व्यवहार इनके साथ तब से आज तक और न जाने कब तक होता रहेगा..
शहर को जब तक बने रहना है तब तक इनके साथ यही होता रहेगा..वही रोज़ की चाय के बाद थका देने वाली उबती ज़िन्दगी मुंह पे हाथ रख आंखों पे छ्प्पे मार नींद को कुछ देर और रोक लेने की जिद ताकि कल परसों की तरह फिर मरोड़ होते पेट के साथ सारी रात न जागने पड़े..रोटी भले दुखते दांतों से चबाई न जाती हो, पनियाली दाल में नमक कुछ ज़यादा हो..
पर ये शहर ऐसे ही जिंदाबाद रहे, सौ दो सौ पांच सौ साल पूरे करे इसके लिए इनका होना और ऐसा ही बने रहने बहुत ज़रूरी है..और ये होगा भी क्योंकि न हम इनका अस्तित्व मानते हैं न ये उसके लिए लड़ते हैं..ठीक ही कहा है किसी ने सबसे बड़ी लडाई पेट से ही होती है और ये सब अभी तक इसी से जूझ रहे हैं..और तभी तक...
सोनसी नीचे तो आ गया हूँ पर मन कुछ ठीक नहीं लग रहा और वैसे भी खिड़की के बाहर धुआं है और मेरी आँख में चुभ भी रहा है..फिर कभी मिलेंगे अभी खिड़की बंद कर रहा हूँ..मुझे पता है तुम मुझे समझती हो इसलिए तुम्हे फ़ोन भी नहीं कर रहा हूँ. वैसे भी तुम्हारा नंबर है कहाँ मेरे पास. तुम तो वही मिलती हो खिड़की के पास. आज खिड़की बंद देख तुम खुद समझ जाना कुछ उलझ गया हूँ..बस उन्ही चेहरों में एक चेहरा चायपाओ का तो कभी तुम्हारा दिख रहा है इसलिए आँख मूंद कुछ देर लेटने जा रहा हूँ..
शचीन्द्र. उमर पौने सत्ताईस. मिसफिट होने से बचने की जद्दोजहद में. इनका ब्लॉग है करनी चापरकरन |
शनिवार, 21 जनवरी 2012
शहर सहरसा मारे ठहक्का बेजोड़ : आलोक रंजन
आज सुबह से मैथिली गीत की एक पंक्ति परेशान कर रही थी - शहर सहरसा के पक्का
पर तरुणी मारे ठहक्का बेजोड़ ! मतलब साफ है सहरसा शहर की युवतियाँ अपनी
छतों पर ठहाके लगा रही हैं ! इस पंक्ति में शहर है , यौवन है और उन्मुक्त
हँसी है ! और एक साफ सा संकेत है कि यह गाँवों में नहीं मिलेगा ।
यदि खुला जीवन देखना है तो सहरसा आईए ! रविवार की सुबह सुबह यह शहर जब छुट्टी के मौज और सर्दी में रजाइ के गुनगुने अहसास में लेटा था तभी मैं यहाँ आया था - अपने शहर ! यहाँ की सड़क और उसमें पड़े गड्ढे में फिसलते रिक्शा के पहियों और उससे लगभग गिरते हुए सा होने पर लगा कि मैं क्यों इसे अपना शहर कहता हूँ ! यदि मैं इस तथ्य को निगल लूँ तो कुछ ज्यादा बदल नहीं जाएगा पर इस गड्ढे से भी एक आत्मीयता है जो सीधे शुरुआती यौवन की ओर ले जाता है जब हम सारे दोस्त एक ही लड़की के दीवाने थे । यहीं छोटी-बड़ी लडाईयां की और बहुत से चोट खाए । आज की तमाम परेशानियाँ मेरी किशोरावस्था की यादों के सामने छोटी हैं चाहे जो हो मैं इस शहर से छूटना नहीं चाहता ।
बहरहाल उस गाने की पंक्ति कई बार सामने आ गई । और जब मैं इसके सहारे बाहर आता हूँ तो शहर को सोती हुई बुजुर्गियत ओढ के बैठा पाता हूँ ! कुछ भी ऐसा नहीं कि इसे युवा कहा जा सके । मोहल्ले दर मोहल्ले भटक लीजिए किसी बाइक की उत्तेजित भों भोँ नहीं है । बाइक़ हैं पर स्थिर चाल में चल रहे हैं । और ताज्जुब ये कि चलाने वाले युवा हैं ।
अपने दोस्तों को ढूँढने निकला हूँ दो -एक अखबार में हैं , कुछ मोबाइल की दुकान पर और बांकि अपने पिता के साथ । इनमें वे भी हैं जो बाहर पढ़ने गये थे और वे भी जो शुरुआत से ही अपने पिता की पान की गुमटी पर बैठते थे । इस खोज का नतीजा ये है कि किसी के पास कोई समय नहीं है । अपने दोस्तों की क्या कहें छोटे भाई के दोस्त भी नहीं दिखते ! किसी मैदान पर कोई नहीं खेल रहा है । कल शाम मैंने चार -पाँच फोन किए कुछ छोटे बच्चों का पता लगाने पर सब शहर से बाहर हैं कोटा , इम्फाल ! इंजीनियरिंग और बेरोजगारी ने गर्ल्स स्कूल , रमेश झा महिला कॉलेज और चूडी शृंगार की दुकानों से लड़कों को चट कर लिया है ।
आज हमारे यहाँ हर तरफ बुजुर्ग फैले हैं आप हर दूसरे कदम पर पैर छूने के लिए झुकिये नहीं तो आपकी शिक्षा का कोई मतलब नहीं । हर दूसरा वाक्य आपको यह याद दिलाता है कि आप किस परिवार से हैं ( भले ही आप के परिवार का कोई सामाजिक अस्तित्व न हो ) । आप की अपनी पहचान मेरा शहर स्वीकार करने की दशा में नहीं है । यहाँ पहचान वही है जो कभी बन गई ! अब उसमें जोड़ ही हो सकता है उसे पलटना या बदलना नहीं हो सकता । यह शहर अपनी पुरानी पहचान ही बनाए रखना चाहता है । इसका सामाजिक संगठन आस पास के गाँवों से यहाँ आकर काम करने वाले मामूली वकीलों, शिक्षकों, किरानियों और दस बारह माडवाडी व्यापारियों से मिल कर बना है ।
यहाँ परिवारों में हो हल्ले हैं , हर गली में दो चार शराबी हैं सड़कों में गड्ढे हैं ,घरेलू हिंसा है और सबको इसी से प्यार है ।
अभी अभी बैंक से लौटा हूँ हमारे बहनोई अपने दिवंगत पिता की फिक्स्ड डिपॉज़िट के नाम्नी का नाम पता करवाने के लिए क्लर्क को सौ रुपये घूस देकर आए हैं । मैंने रोका तो कहते हैं इस शहर का पुराना चलन । इन तमाम पुरानों ने मैथिली गीत के उस पंक्ति की तरुणाई को बड़ी ही बारीकी से बेदखल कर रखा है ।
आलोक इस समय के युवा होने के बावजूद सोचने समझने संवाद करने में विश्वास रखते हैं. इन्हें इनके ब्लॉग लोकरंजन पर भी पढ़ा जा सकता है.
यदि खुला जीवन देखना है तो सहरसा आईए ! रविवार की सुबह सुबह यह शहर जब छुट्टी के मौज और सर्दी में रजाइ के गुनगुने अहसास में लेटा था तभी मैं यहाँ आया था - अपने शहर ! यहाँ की सड़क और उसमें पड़े गड्ढे में फिसलते रिक्शा के पहियों और उससे लगभग गिरते हुए सा होने पर लगा कि मैं क्यों इसे अपना शहर कहता हूँ ! यदि मैं इस तथ्य को निगल लूँ तो कुछ ज्यादा बदल नहीं जाएगा पर इस गड्ढे से भी एक आत्मीयता है जो सीधे शुरुआती यौवन की ओर ले जाता है जब हम सारे दोस्त एक ही लड़की के दीवाने थे । यहीं छोटी-बड़ी लडाईयां की और बहुत से चोट खाए । आज की तमाम परेशानियाँ मेरी किशोरावस्था की यादों के सामने छोटी हैं चाहे जो हो मैं इस शहर से छूटना नहीं चाहता ।
बहरहाल उस गाने की पंक्ति कई बार सामने आ गई । और जब मैं इसके सहारे बाहर आता हूँ तो शहर को सोती हुई बुजुर्गियत ओढ के बैठा पाता हूँ ! कुछ भी ऐसा नहीं कि इसे युवा कहा जा सके । मोहल्ले दर मोहल्ले भटक लीजिए किसी बाइक की उत्तेजित भों भोँ नहीं है । बाइक़ हैं पर स्थिर चाल में चल रहे हैं । और ताज्जुब ये कि चलाने वाले युवा हैं ।
अपने दोस्तों को ढूँढने निकला हूँ दो -एक अखबार में हैं , कुछ मोबाइल की दुकान पर और बांकि अपने पिता के साथ । इनमें वे भी हैं जो बाहर पढ़ने गये थे और वे भी जो शुरुआत से ही अपने पिता की पान की गुमटी पर बैठते थे । इस खोज का नतीजा ये है कि किसी के पास कोई समय नहीं है । अपने दोस्तों की क्या कहें छोटे भाई के दोस्त भी नहीं दिखते ! किसी मैदान पर कोई नहीं खेल रहा है । कल शाम मैंने चार -पाँच फोन किए कुछ छोटे बच्चों का पता लगाने पर सब शहर से बाहर हैं कोटा , इम्फाल ! इंजीनियरिंग और बेरोजगारी ने गर्ल्स स्कूल , रमेश झा महिला कॉलेज और चूडी शृंगार की दुकानों से लड़कों को चट कर लिया है ।
आज हमारे यहाँ हर तरफ बुजुर्ग फैले हैं आप हर दूसरे कदम पर पैर छूने के लिए झुकिये नहीं तो आपकी शिक्षा का कोई मतलब नहीं । हर दूसरा वाक्य आपको यह याद दिलाता है कि आप किस परिवार से हैं ( भले ही आप के परिवार का कोई सामाजिक अस्तित्व न हो ) । आप की अपनी पहचान मेरा शहर स्वीकार करने की दशा में नहीं है । यहाँ पहचान वही है जो कभी बन गई ! अब उसमें जोड़ ही हो सकता है उसे पलटना या बदलना नहीं हो सकता । यह शहर अपनी पुरानी पहचान ही बनाए रखना चाहता है । इसका सामाजिक संगठन आस पास के गाँवों से यहाँ आकर काम करने वाले मामूली वकीलों, शिक्षकों, किरानियों और दस बारह माडवाडी व्यापारियों से मिल कर बना है ।
यहाँ परिवारों में हो हल्ले हैं , हर गली में दो चार शराबी हैं सड़कों में गड्ढे हैं ,घरेलू हिंसा है और सबको इसी से प्यार है ।
अभी अभी बैंक से लौटा हूँ हमारे बहनोई अपने दिवंगत पिता की फिक्स्ड डिपॉज़िट के नाम्नी का नाम पता करवाने के लिए क्लर्क को सौ रुपये घूस देकर आए हैं । मैंने रोका तो कहते हैं इस शहर का पुराना चलन । इन तमाम पुरानों ने मैथिली गीत के उस पंक्ति की तरुणाई को बड़ी ही बारीकी से बेदखल कर रखा है ।
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