रविवार, 22 जनवरी 2012

ये जो शहर है दिल्ली : शचीन्द्र आर्य

कभी कभी बहरूपिये शहर से भाग जाने का मन करता है पर हर बार घुट-घुट कर यहीं किसी गली में कोने में रह जाता हूँ. पता नहीं क्यों इतने दिनों से बोरिया - बोरडम का देसी वर्ज़न - रहा हूँ. कुछ करने का मन नहीं हो रहा. बस बैठे हैं खाली निपट अकेले. एक अदद खिड़की है भी पर पहली मंजिल से कूदना भारी पड़ सकता है. सोनसी तुम तबतक इंतज़ार करो जबतक मैं ग्राउंड फ्लोर पर आता हूँ ..पर जब तक सीढ़ियों से नीचे आता हूँ तब तक इस थोड़े शहर को देख लूँ.. अटक - भटक गया हूँ..

ये शहर हर समय एक से नहीं रहते हमारी तरह इनका मिजाज़ भी बदलता रहता है. सुबह जिन चेहरों को छोड़ के जाता हूँ दोपहर में वो नज़र ही नहीं आते. शाम होते होते कई और चेहरे उसमे शामिल हो जाते हैं. सब इतना गड्ड-मड्ड होता जाता है कि कनपट्टी के पास से पसीने की एक बूंद ज़मीन पे गिरने से पहले मुझे सुनाई दे जाती है और पैडल मार के अपनी खोह में कुछ चेहरों को लिए वापास आ जाता हूँ.

कुछ स्टोव के इर्दगिर्द पकती-उबलती चाय के साथ अपने पूरे दिन के नक़्शे को नहीं अपने उस कल को बनाते पकड़े जा सकते हैं. जहाँ चाय की चुस्कियों के साथ हँसता बोलता पूरा परिवार उसके दिल्ली वाले किस्सों का इंतज़ार करता होगा. अपने मुलक जाने वहां की हवा की बात ही कुछ और है..पर पता नहीं दिल की किसी कोने में उसे ये डर भी सताता है कि कहीं पहाड़गंज - बल्लीमारान- गोविन्द पुरी - लाल कुआँ - सदर- आज़ाद मारकेट- खरी बाउली से देर रात लौटते हुए कोई अंधी आलिशान गाड़ी उसे टक्कर न मार जाये और उसके सपने इसी शिवाजी स्टेडियम के इसी फुटपाथ पर अगली सुबह उसके बच गए साथी आपस में बाँट कर अपने अपने सपनों में न खो जाएँ. डर उस अकेले का नहीं उन सबकी सामूहिक संपत्ति है.

वापसी कभी नहीं हो पायेगी और न ही उनके चले जाने के बाद कोई उन्हें याद रखेगा. फिर अगली सुबह होगी. रस- ब्रेड के साथ नाश्ते में अखबार के पन्ने पलट उनमे कुछ अपना ढूंढ़ लेने की कसरत भी होगी. जैसे उनकी कोई कीमत नहीं वैसे ही उनके गाँव में कौन घरे गाय बियाई..?? कौन परधानी में धांधली कर जीत गया..?? ब्लाक परमुख एक्सीडेंट में हड्डी तुराये बइठे.. भिठिया के घसीटे पारय साल गुज़र गए. कोई खबर नहीं छापता. पर रोज़ जागरण से लेकर भास्कर के पन्ने सब पलटते हैं. इसी उम्मीद में की कभी तो कोई खोज खबर लेगा

उधर मोबाईल कम्पनी भी इन्ही की जेब काटे रहती हैं. दस रूपये का टाक टाइम. उसमे कित्ती बात होगी जब तक असल पे आएंगे तबतक पैसा ख़तम. अगली बारी पच्चीस वाला डलवाए के बतियाबे...कभी गुगाद कर उधर से फोन आय अभी तो नंबर बदल चुका होता है.किसी कंपनी ने अपने प्रतिद्वंदी के ग्राहकों में सेंध लगा कर इनको और अस्थायी बना दिया. सोनसी तुम भी तो बोर नहीं हो रही हो न..ठीक है..

इन्होनें अपने खून पसीने से शहर को सींचा है. पर नाम इनका किसी दीवार - किसी गेट  पर खुदा हुआ नहीं मिलेगा. नाम लिया भी जायेगा तो किसी लुटियन  का. बच्चे यहाँ नहीं तो क्या इसे ही पाला पोसा है. मैंने आज तक मार्क्स को नहीं पढ़ा पर इतना तो मैं भी जनता हूँ कि आर्थिक अभिजिती में ये पराजित से योद्धा हैं. नहीं तो इनके नाम से भी कोई सड़क, कोई धर्मार्थ अस्पताल, कोई ट्रस्ट कहीं न कहीं स्कूल तो चला ही रहा होता..पर नहीं उनकी हैसियत नहीं है न..क्योंकि उनकी कोई सक्रीय आर्थिक हैसियत- भूमिका- औकात [आप इनमे से कोई भी चुनने के लिए स्वतंत्र हैं ] नहीं इसलिये हम उनके सामाजिक अस्तित्व को भी नकार देते हैं. बिलकुल वैसे ही जैसे किसी गरीब से रिश्तेदार को किसी भी घरेलू फैसले में भागिदार नहीं बनाया जाता. न ही  उसकी राय को सुनने लायक माना जाता है. वही व्यवहार इनके साथ तब से आज तक और न जाने कब तक होता रहेगा.. 

शहर को जब तक बने रहना है तब तक इनके साथ यही होता रहेगा..वही रोज़ की चाय के बाद थका देने वाली उबती ज़िन्दगी मुंह पे हाथ रख आंखों पे छ्प्पे मार नींद को कुछ देर और रोक लेने की जिद ताकि कल परसों की तरह फिर मरोड़ होते पेट के साथ सारी रात न जागने पड़े..रोटी भले दुखते दांतों से चबाई न जाती हो, पनियाली दाल में नमक कुछ ज़यादा हो..
  
पर ये शहर ऐसे ही जिंदाबाद रहे, सौ दो सौ पांच सौ साल पूरे करे इसके लिए इनका होना और ऐसा ही बने रहने बहुत ज़रूरी है..और ये होगा भी क्योंकि न हम इनका अस्तित्व मानते हैं न ये उसके लिए लड़ते हैं..ठीक ही कहा है किसी ने सबसे बड़ी लडाई पेट से ही होती है और ये सब अभी तक इसी से जूझ रहे हैं..और तभी तक... 

सोनसी नीचे तो आ गया हूँ पर मन कुछ ठीक नहीं लग रहा और वैसे भी खिड़की के बाहर धुआं है और मेरी आँख में चुभ भी रहा है..फिर कभी मिलेंगे अभी खिड़की बंद कर रहा हूँ..मुझे पता है तुम मुझे समझती हो इसलिए तुम्हे फ़ोन भी नहीं कर रहा हूँ. वैसे भी तुम्हारा नंबर है कहाँ मेरे पास. तुम तो वही मिलती हो खिड़की के पास. आज खिड़की बंद देख तुम खुद समझ जाना कुछ उलझ गया हूँ..बस उन्ही चेहरों में एक चेहरा चायपाओ  का तो कभी तुम्हारा दिख रहा है इसलिए आँख मूंद कुछ देर लेटने जा रहा हूँ.. 

शचीन्द्र. उमर पौने सत्ताईस. मिसफिट होने से बचने की जद्दोजहद में. इनका ब्लॉग है करनी चापरकरन |

शनिवार, 21 जनवरी 2012

शहर सहरसा मारे ठहक्का बेजोड़ : आलोक रंजन

आज सुबह से मैथिली गीत की एक पंक्ति परेशान कर रही थी - शहर सहरसा के पक्का पर तरुणी मारे ठहक्का बेजोड़ ! मतलब साफ है सहरसा शहर की युवतियाँ अपनी छतों पर ठहाके लगा रही हैं ! इस पंक्ति में शहर है , यौवन है और उन्मुक्त हँसी है ! और एक साफ सा संकेत है कि यह गाँवों में नहीं मिलेगा ।

यदि खुला जीवन देखना है तो सहरसा आईए ! रविवार की सुबह सुबह यह शहर जब छुट्टी के मौज और सर्दी में रजाइ के गुनगुने अहसास में लेटा था तभी मैं यहाँ आया था - अपने शहर ! यहाँ की सड़क और उसमें पड़े गड्ढे में फिसलते रिक्शा के पहियों और उससे लगभग गिरते हुए सा होने पर लगा कि मैं क्यों इसे अपना शहर कहता हूँ ! यदि मैं इस तथ्य को निगल लूँ तो कुछ ज्यादा बदल नहीं जाएगा पर इस गड्ढे से भी एक आत्मीयता है जो सीधे शुरुआती यौवन की ओर ले जाता है जब हम सारे दोस्त एक ही लड़की के दीवाने थे । यहीं छोटी-बड़ी लडाईयां की और बहुत से चोट खाए । आज की तमाम परेशानियाँ मेरी किशोरावस्था की यादों के सामने छोटी हैं चाहे जो हो मैं इस शहर से छूटना नहीं चाहता ।

बहरहाल उस गाने की पंक्ति कई बार सामने आ गई । और जब मैं इसके सहारे बाहर आता हूँ तो शहर को सोती हुई बुजुर्गियत ओढ के बैठा पाता हूँ ! कुछ भी ऐसा नहीं कि इसे युवा कहा जा सके । मोहल्ले दर मोहल्ले भटक लीजिए किसी बाइक की उत्तेजित भों भोँ नहीं है । बाइक़ हैं पर स्थिर चाल में चल रहे हैं । और ताज्जुब ये कि चलाने वाले युवा हैं ।

अपने दोस्तों को ढूँढने निकला हूँ दो -एक अखबार में हैं , कुछ मोबाइल की दुकान पर और बांकि अपने पिता के साथ । इनमें वे भी हैं जो बाहर पढ़ने गये थे और वे भी जो शुरुआत से ही अपने पिता की पान की गुमटी पर बैठते थे । इस खोज का नतीजा ये है कि किसी के पास कोई समय नहीं है । अपने दोस्तों की क्या कहें छोटे भाई के दोस्त भी नहीं दिखते ! किसी मैदान पर कोई नहीं खेल रहा है । कल शाम मैंने चार -पाँच फोन किए कुछ छोटे बच्चों का पता लगाने पर सब शहर से बाहर हैं कोटा , इम्फाल ! इंजीनियरिंग और बेरोजगारी ने गर्ल्स स्कूल , रमेश झा महिला कॉलेज और चूडी शृंगार की दुकानों से लड़कों को चट कर लिया है ।

आज हमारे यहाँ हर तरफ बुजुर्ग फैले हैं आप हर दूसरे कदम पर पैर छूने के लिए झुकिये नहीं तो आपकी शिक्षा का कोई मतलब नहीं । हर दूसरा वाक्य आपको यह याद दिलाता है कि आप किस परिवार से हैं ( भले ही आप के परिवार का कोई सामाजिक अस्तित्व न हो ) । आप की अपनी पहचान मेरा शहर स्वीकार करने की दशा में नहीं है । यहाँ पहचान वही है जो कभी बन गई ! अब उसमें जोड़ ही हो सकता है उसे पलटना या बदलना नहीं हो सकता । यह शहर अपनी पुरानी पहचान ही बनाए रखना चाहता है । इसका सामाजिक संगठन आस पास के गाँवों से यहाँ आकर काम करने वाले मामूली वकीलों, शिक्षकों, किरानियों और दस बारह माडवाडी व्यापारियों से मिल कर बना है ।

यहाँ परिवारों में हो हल्ले हैं , हर गली में दो चार शराबी हैं सड़कों में गड्ढे हैं ,घरेलू हिंसा है और सबको इसी से प्यार है ।

अभी अभी बैंक से लौटा हूँ हमारे बहनोई अपने दिवंगत पिता की फिक्स्ड डिपॉज़िट के नाम्नी का नाम पता करवाने के लिए क्लर्क को सौ रुपये घूस देकर आए हैं । मैंने रोका तो कहते हैं इस शहर का पुराना चलन । इन तमाम पुरानों ने मैथिली गीत के उस पंक्ति की तरुणाई को बड़ी ही बारीकी से बेदखल कर रखा है ।

आलोक इस समय के युवा होने के बावजूद सोचने समझने संवाद करने में विश्वास रखते हैं. इन्हें इनके ब्लॉग लोकरंजन  पर भी पढ़ा जा सकता है.