मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

बिहार के अनुबंधित शिक्षकों के समर्थन में ...

किसी भी समाज में शिक्षकों का आंदोलन करना और उनका जेल जाना समाज की गतिकी को प्रभावित ही नही करता है बल्कि उस पर दूरगामी प्रभाव डालता है । वे अपना आंदोलन उस समय में से समय निकाल कर करते हैं जिसमें उन्हें कक्षा में होना चाहिए । कक्षा का समय समाज के सबसे मत्वपूर्ण हिस्से बच्चों के लिए मुकर्रर है जो उन्हें न केवल शिक्षित करता है बल्कि आगे के जीवन की तैयारी में भी भूमिका निभाता है । हालांकि इन कुछ वाक्यों में आदर्श की उपस्थिती है पर जरा उस स्थिति की कल्पना करते हैं जहां एक गैर बराबरी का समाज है और सामाजिक गतिशीलता में अपनी दशा को ठीक करने के लिए सरकार के द्वारा दी जा रही शिक्षा ही एक मात्र ऐसा कारक है जो व्यक्ति की मदद कर सकता है उस समाज में यदि शिक्षक ही कक्षा से अनुपस्थित होकर आंदोलन कर रहे हों तो वहाँ यह विचार का मुद्दा बन जाता है । बिहार का समाज ऐसा ही समाज है और वहाँ चल रहा अनुबंधित शिक्षकों का उग्र होता आंदोलन इसी बात की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है । इस पर गौर करें तो हम पते हैं कि इन शिक्षकों के आंदोलन की भूमिका इनकी नियुक्ति में ही निहित है । एक तो अनुबंध अर्थात ठेका आधारित नौकरी है जहां नौकरी में आवश्यक स्थायित्व का अभाव है जो किसी के भी आत्मविश्वास को लगातार प्रभावित करने के काफी है । यह साधारण मनोविज्ञान है कि यदि आप अस्थायी प्रकार की सेवा में हैं तो सेवा के प्रति आपकी असुरक्षा लगातार बनी रहती है और अंततः यह आपकी कार्यक्षमता को प्रभावित करता है । शिक्षक के मामले में यह केवल उसी तक सीमित नही होता बल्कि आगे बढ़ कर विद्यार्थियों पर भी असर डालता है । इसका लब्बोलुआब यह कि सेवा में इस प्रकार की असुरक्षा से समाज की एक पीढ़ी प्रभावित होती है । अनुबंधित शिक्षकों पर हुए बहुत से शोध में इस बात को रेखांकित भी किया गया है । 'प्रोब रिपोर्ट' का भी मानना है कि अस्थायी प्रकार की सेवा के कारण अनुबंधित शिक्षक अपने काम के प्रति बहुत अन्यमन्स्क हो जाते हैं और इस व्यवस्था में पूरी निष्ठा से काम करने वाले शिक्षक विरले ही मिलते हैं । आगे वेतन का मुद्दा है जो इस असुरक्षित प्रकार की नौकरी में 'कोढ़ में खाज' जैसी दशा का निर्माण करता है । अनुबंधित शिक्षकों को 6000-8000 तक प्रति महीने वेतन मिलता है जो वेतनमान पर नियुक्त शिक्षकों की तुलना में चार गुना कम है । इतने कम पैसे में गुजारा चलाने के लिए बहुत बड़े कौशल की आवश्यकता है । इस संबंध में इस लेखक ने एक शोध किया था और उस दौरान बिहार के सहरसा जिले के कई शिक्षक - शिक्षिकाओं का साक्षात्कार किया था । उसी साक्षात्कार के कुछ अंशों को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है । 1 शिक्षिका कल्याणी कहती हैं '' इतने वेतन में कैसे संतुष्ट होंगे ? मंहगाई के चलते कैसे संतुष्ट होंगे .....एतना मंहगाई में हमलोग को ई साते हज़ार (7000) वेतन मिलता है .... अभी सात हज़ार हुआ है पहले तो पाँचे था । ... तो सात में सोच लीजिये कि एतना मंहगाई में हमलोग कैसे संतुष्ट होंगे । किसी तरह काम चलता है ।'' इस सेवा में विकास की संभावना पर कल्याणी कहती हैं ''इसमें क्या विकास होगा ! इसी में समय कट जाए यही बहुत है । '' 2 शीला कुमारी कहती हैं '' वेतन कुछ संतुष्टि नही है ... जरूरी आवश्यकता की भी पूर्ति नही कर पति हूँ... इसको हमलोग ठेका पर काम करना समझते हैं ...जिसमें सरकार हमको सात हज़ार में खरीद ली है ....'' '' इसमें कोई विकास नही है '' 3 महबूबा खातून कहती हैं '' एक तो वेतन बहुत कम है दूसरे हमारा वेतन का आधे से ज्यादा तो आने जाने में ही खर्च हो जाता है । सहरसा से यहाँ तक आने में रोज़ का 50-60 रुपया लगा जाता है । अब सोच लीजिये कि हमारे लिए क्या बचता कि खाएं और मौज करें ... '' 4 निरंजन जो सहरसा जिला शिक्षक संघ के अध्यक्ष भी हैं वे कहते हैं '' इतने कम वेतन के कारण कोई इस संघ में पद धरण करने के तैयार ही नही होता है क्योंकि यदि पद लिया तो दस लोग आपसे मिलने आएंगे चाय -पान , फोन , पटना जाने आने आदि में सात - आठ हज़ार कब उड़ जाते हैं पता ही नही चलता ... मैं तो अध्यक्ष बन कर पछता रहा हूँ ...'' इस से एक अंदाज़ा आ जाता है कि शिक्षक-शोक्षिकाओं में इस सेवा में मिल रहे वेतन को लेकर कितनी संतुष्टि है और इसमें विकास की वो कितनी संभावना देखते हैं । आगे इसी वेतन से जुड़ा एका और पहलू है विद्यालय में शिक्षकों बीच गैर-बराबरी का । नियमित वेतनमान पर काम करने वाले शिक्षक और अनुबंधित प्रकार के शिक्षक में विद्यालय परिसर से लेकर निजी जीवन दोनों में एक स्पष्ट विभाजन है । निम्न आर्थिक हैसियत के कारण उन्हे कई बार ताने सुनने पड़ते हैं और बार बार उन्हे यह जताया जाता है कि वे नियोजित शिक्षक हैं और दूसरे नियमित वेतनमन वाले । ( इस तरह की अनेक स्थिति इस लेखक ने स्वयं अपने शोध के दौरान देखी और इस सामान्य मानव व्यवहार का अनुमान करना कोई कठिन भी नही है । )इस तरह की स्थिति नियोजित शिक्षकों में हीनता को बढाती है । अनुबंधित शिक्षक -शिक्षिकाओं की नियुक्ति शहर तथा गावों के स्थानीय निकायों के द्वारा हुई है जो उन्हें इन निकायो के प्रति जिम्मेदार बनाती है । इसका असर यह होता है कि साधारण सा जन प्रतिनिधि भी इनकी जांच कर सकता है और इसके साथ साथ आम आदमी भी । हालांकि यह एक अच्छा प्रयास है लेकिन इसका खामियाजा अंततः शिक्षकों कोण ही उठाना पड़ता है । उनकी जांच करने वालों की संख्या बहुत हो जाती है और यह उनके कार्यों में अनावश्यक दखल को बहुत ज्यादा बढ़ा देती है जो पुनः उनकी कार्यक्षमता को ही प्रभावित करती है । आगे उनका वेतन मुखिया या इस तरह के अन्य जन प्रतिनिधियों की अनुशंसा के अधीन है जो उन्हे मुखिया के इर्द - गिर्द घूमने के लिए बाध्य कर देता है । बहुत बार उन्हे उन जन प्रतिनिधियों के व्यक्तिगत कार्य भी करने पड़ते हैं मसलन घर के काम आदि । यदि वह प्रतिनिधि जीवन बीमा का अभिकर्ता है तो शिक्षक को उसकी पॉलिसी भी लेनी पड़ती है अन्यथा बिहार सरकार की इस व्यवस्था में अनुबंधित शिक्षक के वेतन को लटका दिया जाएगा । इन सब को ध्यान में रखकर अब बिहार में उग्र होते जा रहे अनुबंधित शिक्षक-शिक्षिकाओं के आंदोलन को देखें । हाल में वेतन को लेकर लंबा इंतजार चल रहा है , उनका पदस्थपन एसी जगहों पर है जो उनकी रिहाइश से काफी दूर है , ट्रांसफर करने के लिए बिचौलियों की एक पूरी फौज है जो पैसे मांगती है और अंत में नियमित वेतनमान में जाने की उत्कट इच्छा । ये सब मिल कर अभी के उनके आंदोलन की एक आधारभूमि तैयार करते हैं । उस पर मुख्यमंत्री की अधिकार यात्रा जो उनके लिए एक वरदान का ही काम कर रही है क्योंकि वो जिले जिले में घूम रहे मुख्यमंत्री से सीधे तौर पर विरोध जाता सकते हैं जो कि उनके राजधानी में रहने पर इस तरह संभव नही था । और अब यह संक्रामक तरीके से विस्तार भी ले रहा है । मुख्यमंत्री इसमे विपक्षी की साजिश देख रहे हैं और अपनी हत्या के षड्यंत्र से भी इसे जोड़ रहे हैं जो बड़ा ही बचकाना और हास्यास्पद प्रकार का स्पष्टीकरण प्रतीत हो रहा है । यहाँ हम शिक्षा के स्तर को तो रहने ही दें उसके स्थान पर मुख्यमंत्री केवल शिक्षकों के असंतोष के कारणों को देखें तो उनहे लग जाएगा कि यह उन अनुबंधित शिक्षकों की सहज अभिव्यक्ति है जो अपेक्षित ध्यान न दिए जाने से अराजक स्थिति को भी प्रपट कर सकती है । क्योकि इस समूह में युवाओं की संख्या ज्यादा है जो इस आंदोलन को ठीकठाक गति दे रहे हैं । ऊपर से यदि विपक्ष इसे मदद देता है तो यह नितीश कुमार के लिए खतरे की घंटी है । इस आंदोलन में भाग लेने वाले शिक्षक बधाई के पात्र हैं जो इसे प्रकाश में ले आए । बस इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि यह किसी भी दल या गठबंधन के हाथ में न खेलने लगे क्योंकि इससे इसका राजनीतिक इस्तेमाल हो जाएगा और उनके अपने मुद्दे धरे रह जाएंगे ।